आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Friday, June 20, 2008

रोटी चाहिए या यूरेनियम?


आलोक तोमर

रात को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एटमी करार की भव बाधाओं से जूझ और एक हद तक निपट कर सोए थे लेकिन जागे तो एक जोरदार झटका उनका इंतजार कर रहा था। मुद्रास्फीति का इंडेक्स आ चुका था और यह कोई अच्छी खबर नही थी कि बाजार में एक सप्ताह में महंगाई की दर साढ़े ग्यारह फीसदी तक पहुंच गई है और सरल भाषा में कहें तो आलू-प्याज से गाजर-मूली और साबुन तेल तक के दाम बढ़ गए हैं और बाजार आम आदमी और सरकार दोनों की पकड़ से बाहर हो गया है।

यह कोई शुभ सूचना नही है। सब लोग और खासतौर पर विपक्षी यह याद दिलाने में कतई नही चुक रहे कि यह महंगाई तेरह साल का एक रिकॉर्ड है और पिछली बार भी यह रिकॉर्ड तभी बना था जब मनमोहन सिंह नरसिंह राव सरकार में वित्ता मंत्री हुआ करते थे। मनमोहन सिंह वित्ता मंत्री रहने के पहले रिजर्व बैंक के गर्वनर भी रह चुके हैं और उन्हें अच्छी तरह पता है कि मुद्रास्फीति क्यों होती है और इसके क्या-क्या उपाय हो सकते हैं। अब तो खैर बहुत देर हो गई है मगर चिदम्बरम को वित्तामंत्री बना कर मनमोहन सिंह ने कोई बहुत शानदार फैसला नही किया था। जब उनको मोंटेक सिंह अहलुवालिया को भारत सरकार में लाना ही था तो उन्हें ही वित्ता मंत्री बना देते। या प्रधानमंत्री रहते हुए भी वित्ता मंत्रालय वे खुद अपने पास रख सकते थे। पहले भी कई बार ऐसा हुआ है।

अब जब महंगाई पर हाहाकार मचा हुआ है और कोई निदान बताने की बजाय सभी धिक्कार मंत्र जपने में लगे हुए हैं तो एक बात पर हैरत होती है। जिस दिन पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़े थे उसी दिन वित्ता मंत्री चिदम्बरम ने घोषित कर दिया था कि इसका असर बाजार पर पड़ना लाजमी है। जब ये भाव बढ़ाए गए थे तो दुनिया के तेल बाजार में पेट्रोलियम की कीमत 135 डॉलर प्रति बैरल थी। आज की ताजा खबर यह है कि यह कीमत इसी साल 200 डॉलर तक पहुंच सकती है। सरकार को अगर दीवालिया नही होना है तो उसे फिर से पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पडेेंग़े और जाहिर है कि मनमोहन सिंह सरकार को और जूते पड़ेंगे। एक बैरल में 119 लीटर से कुछ ज्यादा का आंकड़ा होता है और इस हिसाब से कच्चे तेल का दाम ही लगभग 38 रुपए प्रति लीटर बैठता है। इसके बाद रिफाइनरी का खर्चा और पेट्रोल पंपो से ले जाने और पंप मालिकों के कमीशन आदि को मिला कर अगर 200 डॉलर का भाव हो गया तो हमें तमाम रियायतों के बावजूद एक लीटर पेट्रोल लगभग 75 रुपए में पड़ेगा। उस हालत में चुनाव में कांग्रेस का क्या हाल होगा यह समझा जा सकता है।

कृषि मंत्री शरद पवार आज बहुत हैरत में बता रहे थे कि हमारे पास इतना अनाज और आलू प्याज हुआ है कि किसानों के पास उसे रखने के लिए जगह नहीं है। भारतीय खाद्य निगम के गोदाम भी पूरी तरह भरे हुए हैं। श्री पवार का कहना यह है कि किसानों को सरकार उचित दाम नही दे पा रही और यह भी बाजार में आए संकट की एक जड़ है। अब श्री पवार को यह कौन याद दिलाए कि दो साल पहले जब अनाज के भंडार खाली थे तो विदेशों से खराब श्रेणी का गेंहू आयात करने के लिए भारत सरकार ने शायद उन्हीं की सहमति से जो दाम दिया था वही भारतीय किसानों को क्यों नही दिया जा सकता। अगर आप किसान की जेब और पेट भरा रखेंगे तो उनका कर्जा माफ करने की नौबत ही नही आएगी।

वामपंथी सबके सब लगता है कि अपने किचन गार्डन में सब्जियां और अनाज उगाते हैं। पूरा देश जब महंगाई को ले कर हैरान और परेशान था तो माक्र्सवादी पोलित ब्यूरो के महासचिव प्रकाश करात ने लगभग खीझ कर पत्रकारों से कहा कि महंगाई क्यों बढ़ी यह आप मुझसे क्यों पूछते हैं। उनसे पूछिए जिन्होंने पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाए हैं और उन्हें एटमी करार की चिंता ज्यादा है। इस संदर्भ में कुत्तो की दुम वाला मुहावरा अपने आप याद आ जाता है। देश में सुनामी हो या चक्रवात अपने कामरेड भाई इंकलाब जिंदाबाद ही करते रहेंगे।

भारत में सिर्फ खाना ही महंगा नही हो रहा। थोक भाव इंडेक्स के आधार पर ही महंगाई का हिसाब किया जाता है और यह शुक्रवार की रात तक ग्यारह से काफी आगे निकल गया था। रिजर्व बैंक की सुरक्षित सीलिंग सीमा इस मामले में साढ़े पांच प्रतिशत की है। इसका सीधा असर बैंकों पर पड़ा है और घर से ले कर गाड़ी खरीदने तक के कर्जे फटाफट महंगे हो गए हैं। फरवरी में जब मुद्रास्फीति साढ़े पांच प्रतिशत के आस पास थी तो बैंकों को छुट दी गई थी कि वे अपनी आधार पूंजी यानी नकद कर्ज अनुपात यानी केश क्रेडिट रेशियो का प्रतिशत छह तक ले जा सकते हैं। आज की तारीख में यह प्रतिशत नौ करने की जरूरत आ गई है और इतना पैसा खुद रिजर्व बैंक के खजाने में भी नही है।

बहुत साल पहले जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे तब यह नौबत आई थी कि रिजर्व बैंक का सोना भी विदेशी बैंकों के पास गिरवी रखना पड़ा था ताकि रुपए का दाम डॉलर के अनुपात में बहुत ज्यादा नही घट जाए। फिलहाल उलटी धारा चल रही है। रुपया डॉलर की तुलना में मजबूत होता जा रहा है और इस बात से चिदम्बरम भले ही खुश हों लेकिन कमल नाथ नाराज हैं क्योंकि निर्यात करने के लिए उन्होंने जो लक्ष्य अपने सामने रखा था वह अब डॉलर की कीमत से निर्धारित होता है और यह कीमत बदलने से निर्यात का इंडेक्स नीचे चला जाता है। निर्यात नही होगा तो देश में विदेशी मुद्रा नही आएगी और विदेशी मुद्रा का अभाव कम से कम कमल नाथ की राय में भारत को दुनिया के व्यापार जगत में बहुत पीछे ले जाएगा।

इस तर्क को अगर उलट कर देखें तो अगर निर्यात नही भी हो और रुपए का भाव बढ़ता रहे तो डॉलर का अनुपातिक दाम गिरेगा और भारत को मिलने वाला कच्चा तेल भी उन्ही बढ़े हुए डॉलर वाले दामों पर प्राप्त होगा। जाहिर है कि इसका असर महंगाई पर भी पड़ेगा और फिलहाल महंगाई के आंकड़ो को न सरकार अनदेखा कर सकती है और न किसी भी पार्टी के नेता। भाजपा के जो नेता उछल उछल कर बोल रहे हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार महंगाई के मामले में फेल हो गई वे भी अगर किसी संयोग से सत्ताा में आए तो यही महंगाई उन्हें भी विरासत में मिलने वाली है और इससे सुलझने के लिए वे कोई ऐसे मौलिक प्रयास नही कर पाएंगे जिन्हें करने से वे अपने आप को महंगाई के इस प्रपंच से निकाल सकें।

वैसे सही बात यह है कि भारत सरकार को कम से कम आने वाले कुछ महीनों तक सारी और चिंताएं भूल कर महंगाई से सुलझने में ध्यान लगाना पड़ेगा क्योंकि एटमी करार इंतजार कर सकता है लेकिन अगर देश की जनता भूखी मरी और लोगों की जिंदगी दुभर हुई तो सरकार को कोई नही बचा पाएगा और यह सरकार ऐसे कारणों से गिरेगी जो दरअसल कुछ दिनों बाद उसके नियंत्रण से बाहर चले जाएगें। सोनिया गांधी के इस तर्क में कुछ नही धरा है कि राज्य सरकारें असल में इस महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। फिलहाल दामों पर राजनीति की बजाय राजनीति के मूल्य ठीक से तय किए जाने चाहिए और मूल्यों पर राजनीति नही की जानी चाहिए।

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