आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Saturday, May 31, 2008

एक कलंकित कांग्रेसी अभिषेक




आलोक तोमर

पैंतीस साल की उम्र में अरबपति बन कर लंदन में घर खरीदने और पिकनिक के लिए पानी का जहाज, दिल्ली और लंदन में रहने के लिए कोठियां रखने वाले छत्ताीसगढ़ के बिलासपुर के एक परिवार के लड़के अभिषेक वर्मा को आज तिहाड़ जेल से मुक्ति मिल गई। सांसद पिता श्रीकांत वर्मा और सांसद मांँ रीता वर्मा के बेटे अभिषेक पर पनडुब्बी घोटाले में दलाली करने और नौ सेना के रहस्य खरीद कर बेचने वाले नेवी वार रूम लीक मामले में मुख्य अभियुक्त होने का आरोप है और उसके जमानत पर रिहा होने का मतलब कांग्रेस के कई बड़े नेताओं की आफत आ जाना है।

इन नेताओं में सबसे पहली कतार में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और छत्ताीसगढ़ के कांग्रेसी नेता और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोती लाल वोरा के अलावा श्रीमती सोनिया गांधी के सचिव विन्सेंट जॉर्ज के भी नाम हैं। इस तथाकथित घोटाले की जांच सीबीआई कर रही है और इसके सिलसिले में नौ सेना के एडमिरल से ले कर सेना के कर्नल तक स्तर के अधिकारी अब भी बगैर सुनवाई के तिहाड़ जेल में बंद हैं। यह मामला फ्रांँस की एक कंपनी का है जिसमें भारत की नौ सेना को स्कोर्पियन नाम की पनडुब्बियां बेचने का सौदा किया था और इस सौदे के खिलाफ नौ सेना अधिकारी, रक्षा मुख्यालय और खुद प्रणब मुखर्जी बताए जाते थे लेकिन इस सौदे में लगभग सात सौ करोड़ रुपए की सिर्फ दलाली शामिल है।

जाहिर है कि आकार और रकम के मामले में यह सौदा बोफोर्स का भी बाप है। अभिषेक वर्मा जवान होने के पहले ही करामाती हो गए थे और सबसे पहले उनका नाम तब उछला था जब उन्होंने करोल बाग दिल्ली के एक ज्वेलर सुभाष चंद्र बड़जात्या को इनकम टैक्स अधिकारी अशोक अग्रवाल के साथ मिल कर करोड़ों रुपए का चुना लगाया था। इस मामले में लाभ पाने वालों में विन्सेंट जॉर्ज का नाम आने के बाद मामला दब गया था और सिर्फ अशोक अग्रवाल को नौकरी से हाथ धोना पड़ा और जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा।

यह सीबीआई ने सच पाया है कि दलाली ली गई थी और इस भुगतान की कहानी बड़ी मनोरंजक है। अक्टूबर 2005 में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने फ्राँस की थेल्स कंपनी से पनडुब्बियों का करार किया और अगले ही दिन थेल्स चेरिटेबल ट्रस्ट 2, डेशवुड लांग रोड, हडलिस्टन, सरे, इंग्लैंड में पांच करोड़ डॉलर दो किस्तों में स्विटजरलैंड की यूबीएस बैंक ज्यूरिक के खाता नंबर 0026324 से एलजीटी बैंक बडूज, लिंकेस्टिन में जमा करवा दिए। सीबीआई के पास इस बात का रिकॉर्ड है कि इसके तुंरत बाद अभिषेक वर्मा लिंकेस्टिन गया और वहां से इस एकाउंट से सारे पैसे निकाल कर वापस अपने स्विस बैंक एकाउंट में रख दिए। सौदा पूरा हुआ।

कांग्रेस को असली चिंता हो सकती है तो अभिषेक वर्मा की रिकॉर्ड की हुई बातचीत और उसके ई मेल रिकॉर्ड से हो सकती है। आखिर जब स्कोर्पियन बनाने वाली थेल्स कंपनी के प्रेसिडेंट भारत में थे तो अभिषेक वर्मा ने इस सौदे से संबंधित कई लोगों को ई मेल लिखी और एक ई मेल में साफ लिखा है कि थेल्य के प्रेसिडेंट सीधे सोनिया गांधी से मिलना चाहते हैं लेकिन जो भी सौदा होगा वह कांग्रेस की ओर से मैं करूगां और मैं ही संबंधित महिला यानी श्रीमती सोनिया गांधी को पैसा पहुंचाऊगां। इसी दौरान अभिषेक ने अपने पिता के दोस्त और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष मोती लाल वोरा से 28 मई 2005 को फोन पर दिन के एक बज कर तैंतीस मिनट से एक बज कर चालीस मिनट तक यानी पूरे सात मिनट बात की और यह बातचीत सीबीआई के रिकॉर्ड में है। कांग्रेस का खजांची अगर हथियारों के किसी दलाल से सात मिनट तक बात करता है तो वह कम से कम हनुमान चालीसा तो नही पढ़ रहा होगा। इस घोटाले में नौ सेना अध्यक्ष अरुण प्रकाश के भतीजे रवि शंकरन भी शामिल हैं और सीबीआई ने उसके खिलाफ इंटरपोल से वांरट निकलवा लिया है।

यह न समझ में आने वाली बात है कि शंकरन का लंदन का पता सीबीआई और इंटरपोल के पास है और उसे दो बार पूछताछ के लिए लंदन में बुलाया जा चुका है लेकिन अब तक भारत नही लाया जा सका। अभिषेक की ई मेल में उसकी तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी से कई बहुत 'संतोषजनक और फलदायी' बातचीत का भी वर्णन है। यह फल किसके लिए है और किसको मिला यह तो पता नही मगर जेल अभिषेक वर्मा ही गए। श्रीमती सोनिया गांधी की दिक्कत वही है जो उनके पति राजीव गांधी की थी। दोनों बहुत भले लोग कहे जा सकते हैं लेकिन अपने को बचाने और उनकी मदद करने के चक्कर में वे अक्सर मुसीबत में फंसत रहे हैं। बोफोर्स और एचडीडल्यू पनडुब्बी कांड की विस्तार से जांच करने वाले महेश दत्ता शर्मा और इसे अदालत में ले जाने वाले अरुण जेटली से भी पूछिए तो वे भी कहते हैं कि बेचारे राजीव गांधी को तो पता ही नही था कि बोफोर्स में हो क्या रहा है।

वित्त मंत्री के नाते विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस सौदे पर आपत्तिा की थी और बाद में जब रक्षा मंत्री बने तो खुद ही इस सौदे को मंजूरी दी थी। उनके पहले रक्षा मंत्री रहे कृष्ण चंद पंत आज भाजपा में हैं लेकिन जब वे कांग्रेस में थे तब भी इस बात पर स्तब्ध रहते थे कि वी पी सिंह उन्हें उत्तार प्रदेश वापस भेजने पर क्यों तुले हुए थे। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर भी इस मामले की आंच आनी स्वाभाविक है और यह तब है जब कोई भी जांच के नतीजे आने के पहले ही कसम खा कर कह सकता है कि मनमोहन सिंह ने इस पूरे कर्मकंाड में एक धेला भी नही खाया। लेकिन जो मनमोहन सिंह खुद इस सौदे के खिलाफ थे वे अचानक इसे मंजूरी क्यों दे बैठे, इस सवाल का जवाब तो उन्हें ही देना पड़ेगा। उनके मंत्रिमंडल से वोलकर रपट के बाद बाहर हो चुके विदेश मंत्री नटवर सिंह भी कहते हैं कि मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी ने उनके काम में कभी हस्तक्षेप नही किया। अभिषेक वर्मा का पासपोर्ट जब्त कर लिया गया है।

हर महीने दूसरे और चौथे सोमवार को उसे अदालत में हाजिर हो कर भारत में ही होने का प्रमाण भी देना पड़ेगा। किसी भी बहाने और किसी भी तरह कोई विदेश यात्रा वह नही कर सकेगा। तीस लाख रुपए का जूर्माना उस पर लगाया गया है और उसके सारे बैकों के सारे ज्ञात खाते सील कर दिए गए हैं। इस मामले में वर्तमान रक्षा मंत्री ए के एंटनी की भी जवाबदेही बनती है और इस जवाबदेही के साथ उन्हें प्रणब मुखर्जी के जमाने की फाइलों पर भी शोध करनी पड़ेगी। रही बात सीबाआई की तो वह मोती लाल वोरा और प्रणब मुखर्जी को बुला कर पूछे तो कि फोन पर क्या बात हुई थी और संतोषजनक और फलदायी चर्चाए क्या क्या हुई थीं।

Monday, May 19, 2008

इंटरनेट पर चली पतित राजनीति



राहुल गांधी पर घिनौने आरोप

आलोक तोमर
डेटलाइन इंडिया
नई दिल्ली, 19 मई-अमेरिका की एक अरबपति इंटरनेट कंपनी ने पूरी दुनिया में यह कुप्रचार फैलाया हुआ है कि कांग्रेस सांसद राहुल गांधी और उनके दोस्तों ने अमेठी में लगभग ढाई साल पहले एक युवती से सामूहिक बलात्कार किया था। पता नहीं किन कारणों से इस इंटरनेट कंपनी की वेबसाइट को न भारत में प्रतिबंधित किया गया और न इसके खिलाफ कोई सख्त कानूनी कार्रवाई की गई। यू टयूब नाम की यह कंपनी अमेरिका में रजिस्टर्ड है और कुछ ही समय पहले गूगल्स ने बहुत मोटी रकम दे कर इसे खरीदा है। निशुल्क वीडियो दिखाने और किसी के भी वीडियो अपनी साईट पर होस्ट करने वाली इस कंपनी के संस्थापकों में जावेद मीर नाम का एक बांग्लादेशी भी है जो 1992 में अपने देश से भाग कर अमेरिका चला गया था। यू टयूब पर मौजूद वीडियो में छह वीडियो मौजूद हैं जिनमें आरोप लगाया गया है कि भारत बलात्कारियों का देश है और राहुल गांधी ने 3 दिसंबर 2006 को संयुक्ता नाम की एक युवती के साथ अपने कुछ विदेशी दोस्तों के साथ मिल कर शराब पिला कर बलात्कार किया और चुप रहने के लिए 50 हजार रुपए देने की पेशकश भी की। संयुक्ता के पिता का नाम बलराम सिंह और मां का नाम सुमित्रा देवी बताया गया है और वेबसाइट पर भारतीय कानून के खिलाफ बलात्कार की कथित शिकार महिला की तस्वीर भी प्रकाशित की गई। विचित्र बात यह है कि वेबसाइट में चश्मदीद गवाहों के तौर पर कुछ लोगों के बयान भी दिखाए गए हैं लेकिन उनके चेहरे नहीं दिखाए गए। इरादों का खतरनाक होना इसी बात से जाहिर है कि वेबसाइट ने किसी भी तथाकथित प्रत्यक्षदर्शी का नाम तक नहीं जाहिर किया। यह झूठी सूचनाएं वेबसाइट पर प्रकाशित करते वक्त बहुत जोर शोर से राहुल गांधी को देश का भावी प्रधानमंत्री भी घोषित किया गया है जिससे अपने आप जाहिर हो जाता है कि यह षडयंत्र उनके राजनैतिक दुश्मनों का है। कांग्रेस ने अपनी ओर से एक और वेबसाइट जिस पर यह सामग्री उपलब्ध थी, को कानूनी नोटिस भेज कर काम चला लिया है। यह दूसरी वेबसाइट थी अमेरिका में रजिस्टर्ड है और नोटिस भेजने वाले प्रसिध्द वकील और कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघ्वी के नीति मार्ग स्थित कार्यालय से सिर्फ यह जवाब मिला कि श्री सिंघ्वी लंदन में हैं और उनके जिस सहयोगी जॉय बोस ने नोटिस भेजा था वे उपलब्ध नहीं है। कमाल की बात यह है कि एक विदेशी वेबसाइट भारत के एक होनहार सांसद के चरित्र पर कीचड उछालती है और उसके खिलाफ भारत में एफआईआर भी दर्ज नहीं की जाती। यू टयूब से वीडियो उठा कर प्रकाशित करने वाली वेबसाइट को नोटिस भेजा जाता है और मूल वेबसाइट भारत में धडल्ले से चलती रहती है। यू टयूब अपनी इन हरकतों की वजह से कई देशों में प्रतिबंधित कर दी गई है और इस पर भारतीय फिल्मों तथा अश्लील दृश्यों की भरमार है। अभिषेक मनु सिंघ्वी भारत के अतिरिक्त महाधिवक्ता रह चुके हैं और संयोग से शासन करने वाली पार्टी के प्रवक्ता है लेकिन अपनी ही पार्टी के नेता राहुल गांधी के अपमान के खिलाफ उन्होंने कोई ठोस कानूनी कार्रवाई नहीं की। वेबसाइट के अनुसार यह लडकी इसका परिवार और वीडियो रिकॉर्ड करने वाले पत्रकार सभी लापता हैं और शायद उनकी हत्या कर दी गई है। यह अलग बात है कि देश के किसी भी थाने में इस बारे में कोई रपट दर्ज नहीं है। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग दोनों में भी शिकायत की गई बताई गई है लेकिन इस शिकायत का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।

Sunday, May 18, 2008

उत्तराखंड में भी है एक कारगिल



आलोक तोमर
डेटलाइन इंडिया
गमशाली;भारत चीन सीमा;,18 मई- तिब्बत की आजादी और वहां चीनी दमन पूरी दूनिया की खबरो मेंं है लेकिन गमशाली और उसी के जैसे आस पास के सैकड़ो गावों की कहानी, उनकी दहशत और उनकी गुमनामी कभी खबर नहीं बनती। इन गांवों की सुरक्षा चीन के प्रकोप से भारत तिब्बत सीमा पुलिस करती है लेकिन सच यह है कि इन गावों के लोगों की भूमिका भी भारतीय सैनिकों से कम नहीं है। भोटिया जनजाति के लोगों की बहुलता वाले इन गावों के निवासिंयों के लिए चीनी सेनाओं की उपस्थिति भी उनकी जिन्दगी की तरह एक पूरा सच है। ये लोग साहस न दिखाएं तो चीन से बड़ी संख्या में घुसपैठ बड़े पैमाने पर हो सकती है और वही कहानी दोहराई जा सकती है जो लद्दाख इलाके के कारगिल में लगभग आठ साल पहले घटित हुई थी। अब लेकिन इन लोगों का साहस भी जवाब देने लगा है। वे भारत के नागरिक हैं और तेजी से विकसित हो रहे उत्तराखण्ड राज्य के हिस्से हैं। मगर जैसा कारगिल,द्रास,बटालिक और आसपास की सीमावर्ती बस्तियों में नही हो पा रहा वैसे ही विकास का कोई हिस्सा देश की सुरक्षा के लिए जरूरी इन उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों तक नहीं पहुंच पा रहा है। स्कूल एक इस गांव में भी है लेकिन सिर्फ कक्षा पांच तक। अस्पताल के नाम पर बीस पहाड़ी किलोमीटरों का दुर्गम सफर करके मलारी कस्बे तक जाना पड़ता है और वहां का अस्पताल भी कोई पूरी सुविधाओं से लैस नहीं है। बीमारियां या दुर्घटनाएं यहा मृत्यु का परिणाम बन कर आती हैं, जीवन की जरूरी सुविधाएं हैं नहीं, बर्फ साल में सिर्फ एक फसल होने देती है और इसी लिए अघोषित अकाल इलाके का चिर सत्य बन गया है। नतीजा स्वाभाविक तौर पर वही है जो हो सकता था। ज्यादातर गांवों के लोग अपने घर-आंगनों को वीरान छोड़ कर मैदानी इलाकों में बसने लगे हैं और उत्तराखण्ड की चीन सीमा भारत के लिए लगातार ज्यादा असुरक्षित होती जा रही है। राज्य सरकार को इन लोगों के अस्तित्व की कोई चिंता नही है। आंखे शायद तब खुलेंगी जब चीन खामोशी से भारत के एक और बड़े हिस्से पर कब्जा कर लेगा और फिर देहरादून के बस में तो कुछ रहेगा नहीं, दिल्ली से भी राजनयिक किस्म के बयान आते रहेंगे जिनका गमशाली और उसके आसपास के मासूम लोगों के लिए एक निर्वासन के अलावा र्कोई महत्व नहीं होगा। ं

Friday, May 9, 2008

बच्चन जी का सच्चा स्मारक




आलोक तोमर

अमिताभ बच्चन ने अपने बाबू जी, हरिवंश राय बच्चन का स्मारक बनाने की घोषणा की है। कायदे से यह घोषणा देश में हिंदी के विकास के लिए काम कर रही दर्जनों संस्थाओं में से किसी को करनी चाहिए थी। उनके पास करोड़ो का बजट है जो ज्यादातर फूहड़ अनुवादों और बैठकों के यात्रा भत्ताों में खर्च होता है। आखिर कवि बच्चन का बेटा होने का सौभाग्य तो अमिताभ को ही मिला है लेकिन अगर आधुनिक हिंदी कविता की बात की जाए तो बच्चन रिश्ते में पूरी समकालीन हिंदी कविता के बाप लगते हैं। एक पूरी पीढ़ी है जिसने गोदान और मधुशाला पढ़ने के लिए बाकायदा हिंदी सीखी। आज कवि सम्मेलन बहुत बड़ा बाजार बन गए हैं लेकिन कवि बच्चन ने ही कवि सम्मेलनों में पारिश्रमिक लेने की परम्परा शुरू की थी।

मेरी विनम्र राय में कवि बच्चन का सबसे बड़ा स्मारक देश भर में बिखरा हुआ है और उसे संजोने की जरूरत है। यह स्मारक है बच्चन जी ध्दारा लिखे गए हजारों पत्र जो पूरे देश के शहरों और कस्बों में लोगों की फाइलों में लगे हुए हैं। बच्चन जी उन्हें लिखे गए हर पत्र का जवाब देते थे। गरीबी में थे तो पोस्ट कार्ड पर देते थे और जब चार पैसे जुड़ गए तो लैटर पैड पर बहुत कलात्मक लिखावट में संक्षिप्त ही सही, जवाब आते जरूर थे।

बात तब की है जब मैं चम्बल घाटी के एक छोटे से कस्बे भिंड में रहता था। बच्चन जी की आत्मकथा का पहला हिस्सा- क्या भूलूं, क्या याद करूं, प्रकाशित हो चुका था और अपने मन में भी कवि बनने की इच्छा जाग गई थी। तुकबंदियां करने लगा था और हिम्मत देखिए कि सीधे बच्चन जी को उनके प्रतीक्षा वाले पते पर भेजने लगा था। जवाब हर बार आता था और हमेशा शाबाशी का नही होता था फिर भी एक ध्वनि जरूर होती थी कि चलो कोई तो कविता लिख रहा है।

इस बीच लगा कि इलाहाबाद, जो साहित्य राजधानी थी, गए बगैर अपन साहित्यकार नही बन पाएंगें। सोलह साल की उम्र में वहां रहने वाली अपनी मौसी के घर जा कर बस गया। साईकिल चलाना सीखा, बच्चन जी ने जिन जगहों का वर्णन किया था जैसे कटघर, मुट्ठीगंज, सिविल लाइंस, एलफ्रेड पार्क की लाईब्रेरी- सब घुम डाली। नवाब यूसूफ रोड पर इलाचंद्र जोशी से मिला, लुकरगंज में महादेवी वर्मा के दर्शन किए, खुसरोबाग की सड़क पर नरेश मेहता के घर गया और उनके साहित्य पर तो निहाल था ही, उनकी बेटी पर भी मुग्ध हो गया।

इसी सड़क पर आगे उपेन्द्र नाथ अश्क एक बड़े सरकारी बंगले पर कब्जा किए बैठे थे। उनका उपन्यास निमिषा उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान में धारावाहिक छप रहा था और मेरे जैसे किशोर को वे टॉलस्टाय नजर आने लगे थे। उन्होनें दर्शन दिए, नीबू पानी पिलाया और मेरे जैसे बच्चे से रहस्योद्धाटन करने के अंदाज में कहा कि अमिताभ बच्चन असम में इलाहाबाद विश्वविघालय के कुलपति रह चुके झा साहब के बेटे हैं। सबूत के तौर पर उन्होनें कहा कि बच्चन जी कितने छोटे कद के हैं और अमिताभ का कद कितना लंबा है। यही इस बात का सबूत है। इतने बड़े आदमी से इतनी छोटी बात सुन कर दिल को चोट लगी लेकिन वे जैसे भी थे अपने लिए उस समय गुनाहों के देवता थे इसलिए थके कदमों से साईकिल उठाई और वापस आ गया।

भिंड लौट कर बच्चन जी को एक पत्र में, जो शायद चार पेज का होगा, अश्क जी की बेहयाई के बारे में विस्तार से लिखा। आज्ञा भी मांगी कि अगर बच्चन जी कहें तो अपनी चंबल घाटी की शैली में अश्क जी को उनके खुसरो बाग में ठोक कर चला आऊं। तब तक इलाके की परम्परा के अनुसार देसी पिस्तौल चलाना सीख लिया था। पत्र का जवाब पंद्रह दिन बाद आया और वह भी पांच लाईन का। पहले आर्शीवाद अंत में शुभकामनाएं और बीच में सिर्फ यह कि मैनें लोगों का और उनके काम का आदर सीखा है और मुझे नही लगता कि मुझे अपनी आत्मा के अलावा और किसी को जवाब देना है। अश्क जी का तो उन्होनें कहीं नाम ही नही लिया। इसके बाद भी मैं कविताएं भेजता रहा, जवाब आते रहे। मधुशाला का सम्मोहन इतना था कि साथ पढ़ने वाली माधवी नाम की एक लड़की से एक तरफा प्रेम हो गया तो उसकी शान में, मधुशाला के छंद में ही, चौंसठ पन्ने की कॉपी में मधुबाला नाम की कृति लिख कर भेज दी। इस बार दो लाईन का जवाब आया। पहली लाईन थी कि तुम्हारी भाषा और छंद की समझ बढ़ती जा रही है और दूसरी लाईन में लिखा था कि हमेशा मौलिकता की ओर बढ़ो, नकल और अनुसरण की कोई मंजिल नही होती। फिर पत्रकार बना तो शीर्षकों ने कविता को पीछे धकेल दिया मगर मन का कवि मरने को तैयार नही था। उस जमाने की बम्बई में जनसत्ताा में नौकरी करने गया तो पहली कोशिश बच्चन जी से मिलने की थी जो अन्नू कपूर ने जया जी से कह कर पूरी करवाई। अब सारी कहानी कहने चला हूं तो यह भी बता दूं कि चौदह साल की उम्र में फिल्म गुव्ी देखी थी, जया जी पर फ़िदा हो गया था और दिल्ली से रैपीडेक्स का हिंदी बांग्ला कोर्स मंगा कर बांग्ला सीखनी शुरू कर दी थी। इस कहानी का अंत यही हुआ कि आखिरकार मैनें जया जी की तरह ही सुंदर एक बंगाली लड़की से शादी की और अब हमारी सोलह साल की एक बेटी है जिसे मैं बच्चन जी के बारे में सुनाया करता हूं। वह अभिषेक की फैन है और हम अमिताभ के लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। यह पूरी कहानी इसलिए लिखी कि अमिताभ बच्चन अगर एक अपील कर दें तो पूरे देश से बच्चन जी की चिट्ठियों का अंबार निकल आएगा और वह उनका सच्चा स्मारक होगा।

कवियों, साहित्यकारों, आलोचकों, राजनेताओं और प्रसिध्द मित्रों को लिखे गए बच्चन जी के पत्र इधर-उधर प्रकाशित हुए हैं लेकिन जिन लोगों की असली पूंजी खुद गुमनाम होते हुए भी इतने बड़े साहित्यकार और उससे भी बड़े इंसान के एक दो या ज्यादा पत्र हैं, वे ही बच्चन जी का असली स्मारक हैं। कायदे से इंटरनेट की दुनिया में इनका अभिलेखागार बनना चाहिए और लोगों को प्रेरणा मिलनी चाहिए कि कितनी भी लंबी ई मेल एक छोटे से पोस्ट कार्ड की जगह नही ले सकती।

बच्चन जी का सच्चा स्मारक



Thursday, May 8, 2008

एक संसदीय षडयंत्र की कहानी



एक संसदीय षडयंत्र की कहानी
आलोक तोमर
अगर आप इसे पढ पा रहे हैं तो आप भाग्यशाली हैं क्योंकि आप तमाम सामाजिक भव बाधाओं के बावजूद स्कूल जा पाए और साक्षर बन पाए। लेख चूंकि हिंदी में है इसलिए इसे पढने वाले समाज के प्रभु वर्ग से नही आते और जो कुछ लोग भाग्यशाली हैं वे अंग्रेजी भी पढ लेते हैं। उनके लिए दुनिया थोडी ज्यादा आसान है। फिर भी दुनिया तो दुनिया है और यहां हर मामले में विरोधाभास चलते रहते हैं।
अब जैसे बहुत बैंड बाजे के साथ देश की शिक्षा के मसीहा अर्जुन सिंह और सौभाग्य से दुनिया के कई विश्वविघालयों में पढ़े प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐलान किया था कि भारत के संविधान में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के लिए बजट सत्र में ही विधेयक पेश कर के कानून बना दिया जाएगा। सत्र खत्म भी हो गया और तीन साल से लोकसभा के सचिवालय में पडा यह विधेयक, विधेयक ही रह गया। कानून नही बन पाया। दूसरे शब्दों में आज भी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में निरक्षर रहना कानूनी हैं और तकनीकी तौर पर सरकार की कोई जिम्मेदारी नही बनती कि हमारे आपके बच्चे र्व।ामाला भी सीख पाएं। सरकार में जो लोग बैठे हैं वे बहुत आसानी से और अपनी सुविधा से शिक्षा और साक्षरता का भेद मिटा देना चाहते हैं। शिक्षा हर तरह से मिल सकती है, गांव का किसान फसल च और मौसम के परि।ाामों के बारे में अच्छी तरह शिक्षित होता है लेकिन भारतीय खाध निगम के गोदामों और गन्ना मिलों के खरीद काउंटरो पर उसके साथ जो राजपत्रित बेईमानी की जाती है उससे सुलझने का उसके पास कोई उपाय नही है। उसे नही मालूम कि दो और दो चार ही होते हैं। एनडीए सरकार ने भी छ: से चौदह साल के बच्चों की पढाई को अनिवार्य बनाने के लिए एक विधेयक पास किया था। इस सरकार के ज्यादातर समर्थक और नेता या तो सेठ साहुकार हैं, या रिटायर्ड अफसर हैं या साधू संत हैं। जैसे संतो को कहावत के अनुसार सीकरी से कोई काम नही होता वैसे ही एनडीए सरकार ने यह नही सोचा कि सिर्फ कानून बनाने से तस्वीर बदल नही जाती।
गांव में और शहरों में भी बच्चे चलने लायक होते हैं तो खेतों में खर पतवार बीनने से लेकर शहरों में कूडा उठाने में लग जाते हैं। जिन्हें पाठशालाओं में होना चाहिए वे परिवार का संसाधन बन जाते हैं। वैसे भी अपने देश के शिक्षा मंत्रालय को फिरंगी तर्ज पर राजीव गांधी के जमाने में मानव संसाधन विकास मंत्रालय नाम दे दिया गया था। इस नाम का तात्विक अर्थ यही है कि अपन जो लोग हैं वे सब प्रतिष्ठान के संसाधन हैं और भारत सरकार हमारा विकास करना चाहती है। इस पु।य कामना के लिए हमें उन लोगों का कृतज्ञ होना चाहिए जो हमारे ही वोटों से जीत कर हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अपने देश को उस समय सर्म्पू।ा लोकतंत्र मानने पर राजी होऊंगा जब वोटिंग मशीनों से चुनाव चिन्ह गायब कर दिए जाएगें। चुनाव चिन्ह का मतलब ही यह है कि निरक्षर मतदाताओं, तुम्हें उम्मीदवार से क्या लेना देना, वह चोर है तो बना रहे तुम तो हाथ हाथी या कमल पर बटन दबाओ और लौट कर अपनी मजूरी में लग जाओ। जो जीतेगा वह आपका विकास करेगा क्योंकि आप उसके राजनैतिक संसाधन भी हैं। समाज के पिछड़े वर्गो के लिए आरक्षण हुआ, भला हुआ और अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे मान्यता दे दी है। यह जीत सिर्फ अर्जुन सिंह की जीत नही है, उन सबका सशक्तीकरण है जो पीढ़ियों से लगातार इस लिए पिछडते आ रहे थे क्योंकि उनके पूर्वजों को व।र्ााश्रम ने समानता की मान्यता और विकास का अधिकार नही दिया था। हंगामा इस पर भी हुआ और तब जा कर थमा जब अर्जुन सिंह ने याद दिलाया कि जो लोग अपना हिस्सा छिन जाने के भय से आतुर हैं, उन्हें चिंता नही करनी चाहिए क्योंकि अवसर नए बनाए जा रहे हैं और उपलब्ध अवसरों में कटौती नही की जा रही है। जिन्हें अदालत के फैसले में भी राजनीति नजर आती है उनका तो भगवान ही मालिक है। फिर भी शिक्षा के मामले में सब कुछ ठीक नही है। मान लिया कि आपने विश्वविघालयों, आई आई टी, आई आई एम और मेडीकल कॉलेजों में आरक्ष।ा दे कर पिछडे वर्गो का भला किया और गरीबों को आगे बढने का मौका दिया लेकिन सही यह भी है कि जब तक बच्चे पहले दर्जे से इंटर तक की पढाई नही करेगें तब तक वे इस राजकीय परोपकार का लाभ उठाने की स्थिति में नही होगें। यह मुर्गी पहले या अंडा वाला सवाल है। इंटर तक वे ही बच्चे पहुंच पाएगें जिन के परिवार गरीबी की तथाकथित रेखा से नीचे नही है और जो रोटी की बजाय किताब और कॉपियां खरीदने की हिम्मत रखते हैं। देश में सर्व शिक्षा अभियान भी है और उसके अरबों रुपए से चलने वाले जन शिक्षण संस्थान भी। इस संस्थानों में इतना पैसा है कि जैसे पेट्रोल पम्प के लिए अर्जियां और राजनैतिक सिफारिशें लगती हैं, वैसे ही इन संस्थानों के लिए दांव पेच किए जाते हैं। यह तो कोई नही मानेगा कि हमारे देश में परोपकारियों की बाढ आ गई है। लोग आवंटित पैसे में से कारें खरीदते हैं, बेटियों के ब्याह करते हैं और आम तौर पर फर्जी ऑडिट करवा के भेज देते हैं। फाइलों में देश साक्षर होता रहता है। जिस देश में उदार सरकारी और संदिग्ध अनुमानों के हिसाब से भी चालीस फीसदी आबादी वही बाइस सौ कैलोरी वाली गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहती है। वहां इस प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य किए बगैर किसी भी आरक्ष।ा या प्रशिक्षण या संवैधानिक अनुरक्षण का कोई मतलब अपनी तो समझ में नही आता। अपनी समझ में यह भी नही आता कि जिस देश में बेटियों को अभिशाप माना जाता है वहां संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण दे कर, कौन सा तीर मार लिया जाएगा। हाल ही में उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की जो जीवनी प्रकाशित हुई है उसमें भी दो टूक शब्दों में स्वीकार किया गया है कि बेटी होने के नाते उनके परिवार में भी शिक्षा के मामले में उनके साथ पारिवारिक स्तर पर खासा भेदभाव किया गया। उनके पिताजी प्रभुनाथ इतने उर्वर थे कि तीन बेटियों के बाद उन्होनें छ: बेटे और पैदा किए। आज पूरा कुनबा मायावती के नाम से जाना जाता है।

शिक्षा देना किसी भी प्रतिष्ठान के लिए परोपकार का नही, अनिवार्यता का विषय है। जब तक देश का हर बच्चा शिक्षित नही हो जाता तब तक देश की पूंजी की हर पाई साक्षरता में लगनी चाहिए। चंद्रमा पर उपग्रह भेजने से हमारी पग़डी में कोई चंद्रमा नही जुड़ जाने वाला है। देश में कितने बच्चे हैं जो अंतरिक्ष में शोध करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर के बडे संस्थानों में पहुंच पाते हैं? देश की स्वायत्तता और संप्रभुता तब तक अधूरी और निरर्थक है जब तक हम अक्षरों को हर आगंन तक नही पहुंचा पाते। अनिवार्य शिक्षा को संविधान से जोड़ने से रोकने का संसदीय षडयंत्र सबकी समझ में आ रहा है लेकिन सब खामोश हैं। दिनकर की पक्तियां याद आती है - जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। (शब्दार्थ)
हमारे लोकतंत्र का सुब्बाकरण
सुप्रिया रॉय
अब यह पता नही कि देश के कानून निर्माताओं में से एक, संसद की गृह मंत्रालय सलाहकार समिति के सम्मानित सदस्य और असम के तेजपुर से कांग्रेस के सासंद मणि कुमार सुब्बा को सीबीआई की रिपोर्ट के आधार पर भारत, भारत के संविधान और देश की संसद के साथ धोखाधडी करने के आरोप में जेल भेजा जाएगा, अपने गुनाहों की सजा पूरी करने के लिए नेपाल वापस किया जाएगा या जैसे अब तक मिलता रहा है, वे नोटों के बोरे खोल देगें और कांग्रेस फिर उन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट दे देगी। अभी यह भी पता नही कि आखिरकार म।ाि कुमार सुब्बा को अपने असली बाप का नाम याद आता है या नही। बहुत सारे सरकारी दस्तावेजों में वे अलग अलग जन्म स्थान और अलग अलग पिता का नाम बताते रहे हैं। मनुष्यों के साथ तो यह होता नही, सुब्बा जरूर कोई अवतार होगें। आखिर इतनी सारी धांधली कर के एक अनपढ आदमी लॉटरी का अरबों रुपए का तकनीकी कारोबार चला सकता है, विभिन्न राज्य सरकारों के पच्चीस हजार करोड़ रुपए हजम कर सकता है और कानूनी नोटिसों का जवाब भी नही देता तो यह आम आदमी के बस की बात तो नही। सुब्बा की कहानी अनोखी और अनूठी जरूर है लेकिन इस तरह की कहानियां हमारे लोकतंत्र में कोई अजनबी नही है। दूर जाने की जरूरत नही हमारे माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में सब जानते हैं कि वे पंजाब में पैदा हुए, पंजाब विश्वविघालय से ले कर लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में पढे। नौकरी विश्व बैंक से ले कर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में बडी नौकरियां की और वहीं से पेंशन पाते हैं। इसके बावजूद वे असम से राज्य सभा में चुन कर आते हैं और उनका पता है मकान नंबर 3989, नंदन नगर, वार्ड नंबर 51 सारूमातरिया, दिसपुर, जिला कामरूप-781006,असम। घर में या तो फोन है नही या फिर वे भारत के संसद में दर्ज अपने जीवन परिचय के बारे में बताना नही चाहते। वैसे राज्य सभा में निर्वाचित होने के लिए अनिवार्य तौर पर राज्य का नागरिक होना कानून में नही है इसलिए यह धोखाधडी चल जाती है। अपनी राज्य सभा में बहुत सारे सांसद ऐसे मौजूद हैं। खुद लालकृष। आडवा।ाी दो बार ग्वालियर की सिंधी कॉलोनी का एक पता दे कर मध्य प्रदेश से राज्य सभा में पहुंच चुके हैं। जैसे चार्ल्स शोभराज की होती है, वैसे ही म।ाि कुमार सुब्बा की भी कुछ मामलों में तारीफ करनी पडेगी। आखिर नेपाली मूल के इस आदमी ने सडक पर मिट्टी ढोई, चाय बिस्किट की दुकान चलाई और वहीं पर लॉटरी के टिकट बेचना शुरू किया। थोड़ी कामयाबी मिली तो ऐजेंसी ले ली। और कोई नाम नही सूझा तो अपने म।ाि और सुब्बा को जोड़ कर एम एस एसोसिएट बना ली। जल्दी ही पहले वे करोड़ों में और फिर अरबों में खेलने लगे। कमाते थे मगर सरकारों को हिस्सा नही देते थे। नोटिस आते थे तो उन्हें फाड कर फेंक देते थे। ऐसी प्रचंड प्रतिभा के साथ कानून से खेलने वाला दूसरा आदमी चार्ल्स शोभराज ही नजर आता है और वह सुब्बा की तरह अवतार नही है और शायद इसी लिए सुब्बा के मूल देश नेपाल में जेल में पडा है। म।ाि कुमार सुब्बा दो बार असम में विधायक रहे। पैसा बहुत आ गया था इसलिए पार्टी के कोषाध्यक्ष बना दिए गए। दिल्ली में तालकटोरा रोड़ पर एक नंबर के अपने बंगले में दो नंबर का काम करते हुए जब वे मिलते हैं तो अगर आपको उनके अतीत और खजाने के बारे में पता ना हो तो चेहरा देख कर दया आ जाती है। बात बात में वे कहते हैं कि लॉटरी की कम्पनी उनकी नही है वह उनकी चार या पांच पत्नियों में से किसी की है, वे कहते हैं मुझे तो गिनना भी नही आता और मैं तो गरीब आदमी हूं। मगर यदि आप उनकी राजनैतिक या मीडिया के जरिए मदद करने के लिए राजी हैं तो जाते हुए उनका सचिव आपको एक लिफाफा थमा देगा जिससे आप अपनी या अपने दल या संस्थान की हैसियत के मुताबिक स्कूटर से ले कर कार तक कुछ भी खरीद सकते हैं। म।ाि कुमार सुब्बा के मामले में एक बात और कही जानी चाहिए कि उनमें वह आत्मविश्वास है जो या तो राम में था या राव।ा में था। यह हमें सर्वोच्च न्यायालय ही बताएगा कि सुब्बा की गिनती आखिर नायकों में होगी या खलनायकों में। फिर भी इतना जरूर है कि म।ाि कुमार सुब्बा पर हत्या से ले कर हेराफेरी तक के तमाम इल्जाम लग चुके हैं, पांच राज्य सरकारें अपना पैसा वसूलने के लिए उनके पीछे पडी हैं लेकिन इस तथाकथित गरीब आदमी के चेहरे पर शिकन तक नही आती। या तो वह अपने सरकारी बंगले में एयरकंडीशनर चला कर मौज कर रहा होता है या दक्षि।ा दिल्ली में अपने दो फार्म हाउसों में से एक में रास रचा रहा होता है। उसके दूसरे फार्म हाउस पर तिहाड जेल में बैठे दाऊद इब्राहिम के गुर्गे रोमेश शर्मा का कब्जा है। धन कुबेर सुब्बा पता नही क्यों अभी तक दाऊद इब्राहिम से कोई रिश्ता स्थापित नही कर पाया। पिछले दिनों अरु।ाांचल के ईटानगर से जहाज पकडने के लिए सुब्बा के तेजपुर आना पडा। रास्ते में सुब्बा को निकलना था इसलिए जैसे दिल्ली में प्रधानमंत्री के लिए होता है, वैसे ही स्थानीय पुलिस ने उनके काफीले के लिए रास्ता रोका हुआ था। बहुत अनुरोध किया कि भैया निकल जाने दो, वर्ना जहाज छूट जाएगा लेकिन वह हवलदार मानने को ही राजी नही हुआ। आखिरकार उससे खुद सुब्बा का नाम लिया और दावा किया कि सुब्बा साहब हमारे दिल्ली के दोस्त हैं तो फिर वह हवलदार गाडी की अगली सीट पर बैठ कर रास्ता बताते हुए हवाई अव्े तक छोड़ कर आया और उसने अनुरोध सिर्फ यह किया कि इसी गाडी से उसे वापस उसके चौराहे तक पहुंचा दिया जाए क्योंकि वह अपने माई-बाप सुब्बा साहब को सलाम करने के लिए जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहता है। सुब्बा कानून के लिए और बाकि देश के भले ना सही लेकिन तेजपुर की जनता के लिए बाकायदा एक अवतार है। अवतारों की तरह ही उनकी पूजा होती है और अवतारों की तरह ही वे अपनी प्रजा का टके पैसे से पूरा ध्यान रखते हैं। कर्नाटक का चंदन तस्कर वीरप्पन भी अपने इलाके में ऐसे ही मसीहा माना जाता था और उसका अंत कितना भयानक हुआ वह सब जानते हैं। उसकी विधवा अब उसका स्मारक बनानी चाहती है और उस पर एक और फिल्म बनाने की घोषणा हो चुकी है लेकिन सुब्बा के मामले में तो बहुत सारी पत्नियां आएंगी और बहुत सारे स्मारक बनेगें। उसकी जिंदगी की कहानी भी फिल्म बनाने लायक है लेकिन हर बात में मुकदमा ठोकने की जो उसकी आदत है उसे देखते हुए लोग हिम्मत नही करते। मुकदमे की बात चली है तो दिल्ली की एक पत्रिका ने सर्वोच्च न्यायालय के रिकॉर्ड के आधार पर ही सुब्बा की जीवन गाथा छाप दी थी तो उसने तेजपुर की अदालत में उसके और उसके सभी कर्मचारियों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था और सुब्बा की महिमा इतनी अपार थी कि सिर्फ डेढ़ महीने में अदालत के तीन जमानती और दो गैर जमानती वारंट दिल्ली पहुंच गए। जिस देश में अदालतों की तारीखें महीनों बाद पडती हैं वहां सुब्बा का यह कमाल भी उन्हें कम से कम लोकतंत्र का अवतार तो सिध्द करता ही है। भारत की राजनीति में आनंद मोहन भी हैं, मुख्तार अंसारी भी हैं, सैयद सहाबुद्दीन भी हैं, डी पी यादव भी है और पप्पू यादव भी है। ये सब जेल में हैं और इनमें से जो आज की तारीख में निर्वाचित हैं उनके मतदाताओं का लोकतंत्र के सदनों में कोई प्रतिनिधि नही है। उनकी समस्याओं को उजागर करने वाला कोई नही उन्हें आपदाओं में राहत दिलवाने वाला कोई नही और यह सब लोकतंत्र का नही लोकतंत्र के सुब्बाकरण का कसूर है। हमें अगर अपनी लोकतांत्रिक मान्यता बरकरार रखनी है तो अपने संविधान और दंड विधान दोनों को लगातार समकालीन बनाते रहना पडेगा वर्ना ना सुब्बाओं की कमी हैं और ना नोटों की बोरियों की।

Sunday, May 4, 2008

सांसद सुब्बा की जेल यात्रा तय





सांसद सुब्बा की जेल यात्रा तय


डेटलाइन इंडिया
नई दिल्ली, 4 मई-कांग्रेस सांसद मणि कुमार सुब्बा का जालसाजी और देशद्रोह के आरोप में जेल जाना तय है। देखना यह है कि असम, बंगाल, दिल्ली और अन्य प्रदेशों के कितने बड़े नेता और बहुत बड़े और वर्तमान और भूतपूर्व अधिकारी इस जाल में फंसते हैं।

मणि कुमार सुब्बा को सीबीआई की खोज रपट का जवाब अगले एक महीने में देना है लेकिन वे मीडिया के जरिए सीबीआई को गालियां देने पर तुल गए है। एक एनआरआई द्वारा चलाई जा रही न्यूज एजेंसी का इस्तेमाल करके सुब्बा ने कहा कि उन पर नेपाल के जिस अपराधी मणि कुमार लिंबो होने का आरोप लगाया जा रहा है वह आदमी 1982 तक नेपाल की जेल में था और आज भी जिंदा है। सीबीआई के अधिकारी कांग्रेस सांसद सुब्बा के इस विचित्र बयान पर दुखी हैं और चकित भी। उनका सवाल है कि अगर सुब्बा को इतने वर्षो से यह जानकारी थी तो वे अपने बचाव में अब जा कर क्यों बोल रहे हैं। सीबीआई के एक अधिकारी के मुताबिक उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि सुब्बा अपने पैसे के दम पर नेपाल का कोई भूतपूर्व अपराधी मणि कुमार लिंबो बना कर खड़ा कर दें और अगर उन्होंने ऐसा किया तो उन पर जालसाजी का मुकदमा और गंभीर हो जाएगा। इस बीच सुब्बा की कई पत्नियों में एक ने भी उनके खिलाफ बयान दे दिया है और सर्वोच्च न्यायालय ने सुब्बा के चुनाव क्षेत्र असम के तेजपुर से एक और याचिका जामिनी कुमार वैश्य ने डाली है जिसके अनुसार सुब्बा का व्यक्तित्व शुरू से आखिर तक फर्जी है। उनके जन्म प्रमाण पत्र, तथाकथित शिक्षा रिकॉर्ड और बार बार बदलते रहे इसका सुबूत है। वैश्य की याचिका में कहा गया है कि मतदाता सूची में सुब्बा का नाम भी जाली है। तेजपुर के जिस मतदान केंद्र नंबर 21 पर सुब्बा का नाम सूची में होना बताया गया है वह चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के अनुसार 537 नंबर पर खत्म हो जाती है लेकिन सुब्बा का मतदाता नंबर 630 है। याचिका के अनुसार 28 अगस्त 1971 को अपनी चचेरी बहन काली माई की हत्या के आरोप में केस नंबर 201 में उम्रकैद की सजा दी गई थी। तेपलेजुम जिला अदालत द्वारा दी गई सजा की पुष्टि 29 नवंबर 1972 को नेपाल के सर्वोच्च न्यायाल ने कर दी थी और बाद में नेपाल नरेश के पास अपील की गई थी जो नामंजूर हो गई थी।

सीबीआई के अनुसार सुब्बा और लिंबो नेपाल की ईलाम जेल से ईलाम अस्पताल ले जाते वक्त फरार हो कर भारत आ गया इस बात की पुष्टि सुब्बा की दूसरी पत्नी कर्मा कनु ने भी की है। सुब्बा के भाई संजय राज सुब्बा ने माफी की अपील नेपाल नरेश के पास की थी और यही यह बताने के लिए काफी है कि मणि कुमार लिंबो एक ही व्यक्ति हैं। इसके अलावा सुब्बा पर नागालैंड, असम और मेघालय लॉटरियों के कुल मिला कर 25 हजार करोड़ रुपए और उत्तर प्रदेश में 35 सौ करोड़ रुपए व्यापार के टैक्स के तौर पर हजम कर जाने का आरोप है।
सुब्बा ने लोकसभा का नामंकन करते समय अपनी हैसियत सिर्फ 20 करोड़ रुपए की बताई है, जबकि सिर्फ उसका दिल्ली का फार्महाउस दो सौ करोड़ का है। कांग्रेस में सुब्बा के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो गई है। असम के गृह मंत्री ने उनका इस्तीफा मांगा है और आज उनके इलाके तेजपुर में उनके पुतले जलाए गए। सुब्बा बहुत बड़ी आफत में हैं और देखना यह है कि वे अपने साथ कितने अधिकारियों और राजनेताओं को ले कर डूबते हैं।

अब मणिपुर में भी सल्वा जोडुम

डेटलाइन इंडिया
नई दिल्ली, 4 मई-सर्वोच्च न्यायालय कुछ भी कहता रहे मगर सुदूर उत्तर पूर्व में मणिपुर की सरकार ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह से प्रेरणा लेने का फैसला किया है। छत्तीसगढ़ में माओवादियों से निपटने के लिए सल्वा जोडुम अभियान की तरह ही मणिपुर में भी राज्य सरकार आतंकवाद प्रभावित इलाके के लोगों को हथियार देगी और आतंकवादियों से जूझने में मदद करेगी।हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका के आधार पर स सल्वा जोडुम के मामले में टिप्पणी की थी कि किसी भी राज्य सरकार को निजी सेनाएं बनाने यह उन्हें प्रोत्साहन देने का कोई अधिकार नहीं है। एक तरह से यह फैसला तो नहीं था लेकिन इस बात का संदेश अवश्य था कि सर्वोच्च न्यायालय सल्वा जोडुम को भी एक तरह का सरकारी आतंकवाद मान कर चल रही है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री ओ इडोबी सिंह ने कल मंत्रिमंडल की बैठक में खुद छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए यह प्रस्ताव रखा और मंत्रिमंडल में आम सहमति से इसकी पुष्टि कर दी। ठीक सल्वा जोडुम की तर्ज पर ही मणिपुर सरकार भी अपने नागरिकों को हथियार उपलब्ध कराएगी और इन हथियारों के लिए थाने के गोदामों में रखे गए उस खजाने का सहारा लिया जाएगा जिसमें आतंकवादियों से जब्त हथियार रखे हुए है।

मणिपुर सरकार के सूत्रों के अनुसार राज्य की पुलिस ग्रामीणों को प्रशिक्षण देगी और उन्हें आतंकवाद से जूझने तरीके सिखाएगी। इतना ही नहीं जहां आतंकवादियों का सबसे ज्यादा खतरा होगा वहां सल्वा जोडुम जैसे नेक प्रयासों में कोई गैर कानूनी बात नहीं है। खुद केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने सल्वा जोडुम की उपलब्धियों को महत्वपूर्ण बताया है और यह भी कहा है कि जनता की लड़ाई लड़ने में सरकार को हर संभव मदद देनी चाहिए। अगर मणिपुर में छत्तीसगढ़ के सल्वा जोडुम का अनुसरण हो सकता है तो आतंकवाद से प्रभावित दूसरे राज्य भी छत्तीसगढ़ को अपनी प्रेरणा मान कर चलेंगे। इससे एक नए अभियान का सूत्रपात्र हो सकता है। सिर्फ सरकार या सरकारी बलों द्वारा संगठित माओवादियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

सुनीता देवी का शिकार एक सिपाही



डेटलाइन इंडिया
पटना, 4 मई-बिहार की विधायक सुनीता देवी पर यौन शोषण का आरोप लगाने वाले सिपाही बालेश्वर शर्मा को सिर्फ इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उसने कांग्रेस की एक विधायक सुनीता देवी पर अपने साथ बलात्कार करने का विचित्र आरोप लगाया था पुलिस का कहना है कि बालेश्वर शर्मा को निलंबित करने का कारण यह है कि उसने अपने अधिकारियों को सूचना दिए बगैर पुलिस में रपट लिखा दी।41 वर्षीय इस कांग्रेसी विधायक को बचाने के लिए राज्य सरकार तो हरकत में आ गई है लेकिन पता नही वह बालेश्वर शर्मा के पास मौजूद उन पत्रों और चित्रों का क्या करेग जो बालेश्वर शर्मा के पास मौजूद हैं और इस जबरन किए गए प्रेम की कहानी खुद कहते हैं। अब तो वे टेप भी निकल आए हैं जिनमें विधायिका सुनीता देवी अपने अंगरक्षक से एक नेहाल प्रेमिका के अंदाज बात कर रही हैं और उन्हें राजा और छैला जैसे संबोधन दे रही हैं। एक तस्वीर है जिसमें सुनीता देवी और बालेश्वर शर्मा बहुत अंतरंग मुद्रा में एक साथ दिखाई पड़ते हैं लेकिन सुनीता देवी का कहना है कि यह तस्वीर राखी के दिन ली गई थी। कहने को वे कुछ भी कहती रहें लेकिन सच यही है कि यह भाई बहन की तस्वीर नजर नहीं आती। कांग्रेस खुद भी अपनी विधायिका की इस टुच्ची हरकत से आहत है और उसने भी पार्टी स्तर पर इस पूरे मामले की जांच करने के लिए कमेटी बिठा दी है। यह पता नहीं कि कमेटी की रिपोर्ट पहले आएगी या पुलिस की, लेकिन इस पूरे अभियान में बिहार पुलिस का एक आम सिपाही जरूर बलि चढ़ गया है जहां तक सुनीता देवी की बात है तो वे बहुत समय से अपने पति से अलग रहतीं हैं और बालेश्वर शर्मा के अलावा उनके अन्य राजनैति और गैर राजनैतिक लोगों से संबंधों जानकारी भी पुलिस को मिल चुकी है।