आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Thursday, May 8, 2008

एक संसदीय षडयंत्र की कहानी



एक संसदीय षडयंत्र की कहानी
आलोक तोमर
अगर आप इसे पढ पा रहे हैं तो आप भाग्यशाली हैं क्योंकि आप तमाम सामाजिक भव बाधाओं के बावजूद स्कूल जा पाए और साक्षर बन पाए। लेख चूंकि हिंदी में है इसलिए इसे पढने वाले समाज के प्रभु वर्ग से नही आते और जो कुछ लोग भाग्यशाली हैं वे अंग्रेजी भी पढ लेते हैं। उनके लिए दुनिया थोडी ज्यादा आसान है। फिर भी दुनिया तो दुनिया है और यहां हर मामले में विरोधाभास चलते रहते हैं।
अब जैसे बहुत बैंड बाजे के साथ देश की शिक्षा के मसीहा अर्जुन सिंह और सौभाग्य से दुनिया के कई विश्वविघालयों में पढ़े प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐलान किया था कि भारत के संविधान में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के लिए बजट सत्र में ही विधेयक पेश कर के कानून बना दिया जाएगा। सत्र खत्म भी हो गया और तीन साल से लोकसभा के सचिवालय में पडा यह विधेयक, विधेयक ही रह गया। कानून नही बन पाया। दूसरे शब्दों में आज भी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में निरक्षर रहना कानूनी हैं और तकनीकी तौर पर सरकार की कोई जिम्मेदारी नही बनती कि हमारे आपके बच्चे र्व।ामाला भी सीख पाएं। सरकार में जो लोग बैठे हैं वे बहुत आसानी से और अपनी सुविधा से शिक्षा और साक्षरता का भेद मिटा देना चाहते हैं। शिक्षा हर तरह से मिल सकती है, गांव का किसान फसल च और मौसम के परि।ाामों के बारे में अच्छी तरह शिक्षित होता है लेकिन भारतीय खाध निगम के गोदामों और गन्ना मिलों के खरीद काउंटरो पर उसके साथ जो राजपत्रित बेईमानी की जाती है उससे सुलझने का उसके पास कोई उपाय नही है। उसे नही मालूम कि दो और दो चार ही होते हैं। एनडीए सरकार ने भी छ: से चौदह साल के बच्चों की पढाई को अनिवार्य बनाने के लिए एक विधेयक पास किया था। इस सरकार के ज्यादातर समर्थक और नेता या तो सेठ साहुकार हैं, या रिटायर्ड अफसर हैं या साधू संत हैं। जैसे संतो को कहावत के अनुसार सीकरी से कोई काम नही होता वैसे ही एनडीए सरकार ने यह नही सोचा कि सिर्फ कानून बनाने से तस्वीर बदल नही जाती।
गांव में और शहरों में भी बच्चे चलने लायक होते हैं तो खेतों में खर पतवार बीनने से लेकर शहरों में कूडा उठाने में लग जाते हैं। जिन्हें पाठशालाओं में होना चाहिए वे परिवार का संसाधन बन जाते हैं। वैसे भी अपने देश के शिक्षा मंत्रालय को फिरंगी तर्ज पर राजीव गांधी के जमाने में मानव संसाधन विकास मंत्रालय नाम दे दिया गया था। इस नाम का तात्विक अर्थ यही है कि अपन जो लोग हैं वे सब प्रतिष्ठान के संसाधन हैं और भारत सरकार हमारा विकास करना चाहती है। इस पु।य कामना के लिए हमें उन लोगों का कृतज्ञ होना चाहिए जो हमारे ही वोटों से जीत कर हमारे भाग्य विधाता बन जाते हैं। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं अपने देश को उस समय सर्म्पू।ा लोकतंत्र मानने पर राजी होऊंगा जब वोटिंग मशीनों से चुनाव चिन्ह गायब कर दिए जाएगें। चुनाव चिन्ह का मतलब ही यह है कि निरक्षर मतदाताओं, तुम्हें उम्मीदवार से क्या लेना देना, वह चोर है तो बना रहे तुम तो हाथ हाथी या कमल पर बटन दबाओ और लौट कर अपनी मजूरी में लग जाओ। जो जीतेगा वह आपका विकास करेगा क्योंकि आप उसके राजनैतिक संसाधन भी हैं। समाज के पिछड़े वर्गो के लिए आरक्षण हुआ, भला हुआ और अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे मान्यता दे दी है। यह जीत सिर्फ अर्जुन सिंह की जीत नही है, उन सबका सशक्तीकरण है जो पीढ़ियों से लगातार इस लिए पिछडते आ रहे थे क्योंकि उनके पूर्वजों को व।र्ााश्रम ने समानता की मान्यता और विकास का अधिकार नही दिया था। हंगामा इस पर भी हुआ और तब जा कर थमा जब अर्जुन सिंह ने याद दिलाया कि जो लोग अपना हिस्सा छिन जाने के भय से आतुर हैं, उन्हें चिंता नही करनी चाहिए क्योंकि अवसर नए बनाए जा रहे हैं और उपलब्ध अवसरों में कटौती नही की जा रही है। जिन्हें अदालत के फैसले में भी राजनीति नजर आती है उनका तो भगवान ही मालिक है। फिर भी शिक्षा के मामले में सब कुछ ठीक नही है। मान लिया कि आपने विश्वविघालयों, आई आई टी, आई आई एम और मेडीकल कॉलेजों में आरक्ष।ा दे कर पिछडे वर्गो का भला किया और गरीबों को आगे बढने का मौका दिया लेकिन सही यह भी है कि जब तक बच्चे पहले दर्जे से इंटर तक की पढाई नही करेगें तब तक वे इस राजकीय परोपकार का लाभ उठाने की स्थिति में नही होगें। यह मुर्गी पहले या अंडा वाला सवाल है। इंटर तक वे ही बच्चे पहुंच पाएगें जिन के परिवार गरीबी की तथाकथित रेखा से नीचे नही है और जो रोटी की बजाय किताब और कॉपियां खरीदने की हिम्मत रखते हैं। देश में सर्व शिक्षा अभियान भी है और उसके अरबों रुपए से चलने वाले जन शिक्षण संस्थान भी। इस संस्थानों में इतना पैसा है कि जैसे पेट्रोल पम्प के लिए अर्जियां और राजनैतिक सिफारिशें लगती हैं, वैसे ही इन संस्थानों के लिए दांव पेच किए जाते हैं। यह तो कोई नही मानेगा कि हमारे देश में परोपकारियों की बाढ आ गई है। लोग आवंटित पैसे में से कारें खरीदते हैं, बेटियों के ब्याह करते हैं और आम तौर पर फर्जी ऑडिट करवा के भेज देते हैं। फाइलों में देश साक्षर होता रहता है। जिस देश में उदार सरकारी और संदिग्ध अनुमानों के हिसाब से भी चालीस फीसदी आबादी वही बाइस सौ कैलोरी वाली गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहती है। वहां इस प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य किए बगैर किसी भी आरक्ष।ा या प्रशिक्षण या संवैधानिक अनुरक्षण का कोई मतलब अपनी तो समझ में नही आता। अपनी समझ में यह भी नही आता कि जिस देश में बेटियों को अभिशाप माना जाता है वहां संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण दे कर, कौन सा तीर मार लिया जाएगा। हाल ही में उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की जो जीवनी प्रकाशित हुई है उसमें भी दो टूक शब्दों में स्वीकार किया गया है कि बेटी होने के नाते उनके परिवार में भी शिक्षा के मामले में उनके साथ पारिवारिक स्तर पर खासा भेदभाव किया गया। उनके पिताजी प्रभुनाथ इतने उर्वर थे कि तीन बेटियों के बाद उन्होनें छ: बेटे और पैदा किए। आज पूरा कुनबा मायावती के नाम से जाना जाता है।

शिक्षा देना किसी भी प्रतिष्ठान के लिए परोपकार का नही, अनिवार्यता का विषय है। जब तक देश का हर बच्चा शिक्षित नही हो जाता तब तक देश की पूंजी की हर पाई साक्षरता में लगनी चाहिए। चंद्रमा पर उपग्रह भेजने से हमारी पग़डी में कोई चंद्रमा नही जुड़ जाने वाला है। देश में कितने बच्चे हैं जो अंतरिक्ष में शोध करने के लिए लाखों रुपए खर्च कर के बडे संस्थानों में पहुंच पाते हैं? देश की स्वायत्तता और संप्रभुता तब तक अधूरी और निरर्थक है जब तक हम अक्षरों को हर आगंन तक नही पहुंचा पाते। अनिवार्य शिक्षा को संविधान से जोड़ने से रोकने का संसदीय षडयंत्र सबकी समझ में आ रहा है लेकिन सब खामोश हैं। दिनकर की पक्तियां याद आती है - जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। (शब्दार्थ)
हमारे लोकतंत्र का सुब्बाकरण
सुप्रिया रॉय
अब यह पता नही कि देश के कानून निर्माताओं में से एक, संसद की गृह मंत्रालय सलाहकार समिति के सम्मानित सदस्य और असम के तेजपुर से कांग्रेस के सासंद मणि कुमार सुब्बा को सीबीआई की रिपोर्ट के आधार पर भारत, भारत के संविधान और देश की संसद के साथ धोखाधडी करने के आरोप में जेल भेजा जाएगा, अपने गुनाहों की सजा पूरी करने के लिए नेपाल वापस किया जाएगा या जैसे अब तक मिलता रहा है, वे नोटों के बोरे खोल देगें और कांग्रेस फिर उन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट दे देगी। अभी यह भी पता नही कि आखिरकार म।ाि कुमार सुब्बा को अपने असली बाप का नाम याद आता है या नही। बहुत सारे सरकारी दस्तावेजों में वे अलग अलग जन्म स्थान और अलग अलग पिता का नाम बताते रहे हैं। मनुष्यों के साथ तो यह होता नही, सुब्बा जरूर कोई अवतार होगें। आखिर इतनी सारी धांधली कर के एक अनपढ आदमी लॉटरी का अरबों रुपए का तकनीकी कारोबार चला सकता है, विभिन्न राज्य सरकारों के पच्चीस हजार करोड़ रुपए हजम कर सकता है और कानूनी नोटिसों का जवाब भी नही देता तो यह आम आदमी के बस की बात तो नही। सुब्बा की कहानी अनोखी और अनूठी जरूर है लेकिन इस तरह की कहानियां हमारे लोकतंत्र में कोई अजनबी नही है। दूर जाने की जरूरत नही हमारे माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में सब जानते हैं कि वे पंजाब में पैदा हुए, पंजाब विश्वविघालय से ले कर लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में पढे। नौकरी विश्व बैंक से ले कर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में बडी नौकरियां की और वहीं से पेंशन पाते हैं। इसके बावजूद वे असम से राज्य सभा में चुन कर आते हैं और उनका पता है मकान नंबर 3989, नंदन नगर, वार्ड नंबर 51 सारूमातरिया, दिसपुर, जिला कामरूप-781006,असम। घर में या तो फोन है नही या फिर वे भारत के संसद में दर्ज अपने जीवन परिचय के बारे में बताना नही चाहते। वैसे राज्य सभा में निर्वाचित होने के लिए अनिवार्य तौर पर राज्य का नागरिक होना कानून में नही है इसलिए यह धोखाधडी चल जाती है। अपनी राज्य सभा में बहुत सारे सांसद ऐसे मौजूद हैं। खुद लालकृष। आडवा।ाी दो बार ग्वालियर की सिंधी कॉलोनी का एक पता दे कर मध्य प्रदेश से राज्य सभा में पहुंच चुके हैं। जैसे चार्ल्स शोभराज की होती है, वैसे ही म।ाि कुमार सुब्बा की भी कुछ मामलों में तारीफ करनी पडेगी। आखिर नेपाली मूल के इस आदमी ने सडक पर मिट्टी ढोई, चाय बिस्किट की दुकान चलाई और वहीं पर लॉटरी के टिकट बेचना शुरू किया। थोड़ी कामयाबी मिली तो ऐजेंसी ले ली। और कोई नाम नही सूझा तो अपने म।ाि और सुब्बा को जोड़ कर एम एस एसोसिएट बना ली। जल्दी ही पहले वे करोड़ों में और फिर अरबों में खेलने लगे। कमाते थे मगर सरकारों को हिस्सा नही देते थे। नोटिस आते थे तो उन्हें फाड कर फेंक देते थे। ऐसी प्रचंड प्रतिभा के साथ कानून से खेलने वाला दूसरा आदमी चार्ल्स शोभराज ही नजर आता है और वह सुब्बा की तरह अवतार नही है और शायद इसी लिए सुब्बा के मूल देश नेपाल में जेल में पडा है। म।ाि कुमार सुब्बा दो बार असम में विधायक रहे। पैसा बहुत आ गया था इसलिए पार्टी के कोषाध्यक्ष बना दिए गए। दिल्ली में तालकटोरा रोड़ पर एक नंबर के अपने बंगले में दो नंबर का काम करते हुए जब वे मिलते हैं तो अगर आपको उनके अतीत और खजाने के बारे में पता ना हो तो चेहरा देख कर दया आ जाती है। बात बात में वे कहते हैं कि लॉटरी की कम्पनी उनकी नही है वह उनकी चार या पांच पत्नियों में से किसी की है, वे कहते हैं मुझे तो गिनना भी नही आता और मैं तो गरीब आदमी हूं। मगर यदि आप उनकी राजनैतिक या मीडिया के जरिए मदद करने के लिए राजी हैं तो जाते हुए उनका सचिव आपको एक लिफाफा थमा देगा जिससे आप अपनी या अपने दल या संस्थान की हैसियत के मुताबिक स्कूटर से ले कर कार तक कुछ भी खरीद सकते हैं। म।ाि कुमार सुब्बा के मामले में एक बात और कही जानी चाहिए कि उनमें वह आत्मविश्वास है जो या तो राम में था या राव।ा में था। यह हमें सर्वोच्च न्यायालय ही बताएगा कि सुब्बा की गिनती आखिर नायकों में होगी या खलनायकों में। फिर भी इतना जरूर है कि म।ाि कुमार सुब्बा पर हत्या से ले कर हेराफेरी तक के तमाम इल्जाम लग चुके हैं, पांच राज्य सरकारें अपना पैसा वसूलने के लिए उनके पीछे पडी हैं लेकिन इस तथाकथित गरीब आदमी के चेहरे पर शिकन तक नही आती। या तो वह अपने सरकारी बंगले में एयरकंडीशनर चला कर मौज कर रहा होता है या दक्षि।ा दिल्ली में अपने दो फार्म हाउसों में से एक में रास रचा रहा होता है। उसके दूसरे फार्म हाउस पर तिहाड जेल में बैठे दाऊद इब्राहिम के गुर्गे रोमेश शर्मा का कब्जा है। धन कुबेर सुब्बा पता नही क्यों अभी तक दाऊद इब्राहिम से कोई रिश्ता स्थापित नही कर पाया। पिछले दिनों अरु।ाांचल के ईटानगर से जहाज पकडने के लिए सुब्बा के तेजपुर आना पडा। रास्ते में सुब्बा को निकलना था इसलिए जैसे दिल्ली में प्रधानमंत्री के लिए होता है, वैसे ही स्थानीय पुलिस ने उनके काफीले के लिए रास्ता रोका हुआ था। बहुत अनुरोध किया कि भैया निकल जाने दो, वर्ना जहाज छूट जाएगा लेकिन वह हवलदार मानने को ही राजी नही हुआ। आखिरकार उससे खुद सुब्बा का नाम लिया और दावा किया कि सुब्बा साहब हमारे दिल्ली के दोस्त हैं तो फिर वह हवलदार गाडी की अगली सीट पर बैठ कर रास्ता बताते हुए हवाई अव्े तक छोड़ कर आया और उसने अनुरोध सिर्फ यह किया कि इसी गाडी से उसे वापस उसके चौराहे तक पहुंचा दिया जाए क्योंकि वह अपने माई-बाप सुब्बा साहब को सलाम करने के लिए जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहता है। सुब्बा कानून के लिए और बाकि देश के भले ना सही लेकिन तेजपुर की जनता के लिए बाकायदा एक अवतार है। अवतारों की तरह ही उनकी पूजा होती है और अवतारों की तरह ही वे अपनी प्रजा का टके पैसे से पूरा ध्यान रखते हैं। कर्नाटक का चंदन तस्कर वीरप्पन भी अपने इलाके में ऐसे ही मसीहा माना जाता था और उसका अंत कितना भयानक हुआ वह सब जानते हैं। उसकी विधवा अब उसका स्मारक बनानी चाहती है और उस पर एक और फिल्म बनाने की घोषणा हो चुकी है लेकिन सुब्बा के मामले में तो बहुत सारी पत्नियां आएंगी और बहुत सारे स्मारक बनेगें। उसकी जिंदगी की कहानी भी फिल्म बनाने लायक है लेकिन हर बात में मुकदमा ठोकने की जो उसकी आदत है उसे देखते हुए लोग हिम्मत नही करते। मुकदमे की बात चली है तो दिल्ली की एक पत्रिका ने सर्वोच्च न्यायालय के रिकॉर्ड के आधार पर ही सुब्बा की जीवन गाथा छाप दी थी तो उसने तेजपुर की अदालत में उसके और उसके सभी कर्मचारियों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था और सुब्बा की महिमा इतनी अपार थी कि सिर्फ डेढ़ महीने में अदालत के तीन जमानती और दो गैर जमानती वारंट दिल्ली पहुंच गए। जिस देश में अदालतों की तारीखें महीनों बाद पडती हैं वहां सुब्बा का यह कमाल भी उन्हें कम से कम लोकतंत्र का अवतार तो सिध्द करता ही है। भारत की राजनीति में आनंद मोहन भी हैं, मुख्तार अंसारी भी हैं, सैयद सहाबुद्दीन भी हैं, डी पी यादव भी है और पप्पू यादव भी है। ये सब जेल में हैं और इनमें से जो आज की तारीख में निर्वाचित हैं उनके मतदाताओं का लोकतंत्र के सदनों में कोई प्रतिनिधि नही है। उनकी समस्याओं को उजागर करने वाला कोई नही उन्हें आपदाओं में राहत दिलवाने वाला कोई नही और यह सब लोकतंत्र का नही लोकतंत्र के सुब्बाकरण का कसूर है। हमें अगर अपनी लोकतांत्रिक मान्यता बरकरार रखनी है तो अपने संविधान और दंड विधान दोनों को लगातार समकालीन बनाते रहना पडेगा वर्ना ना सुब्बाओं की कमी हैं और ना नोटों की बोरियों की।

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