आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Thursday, June 19, 2008

दुर्भाग्य में वासना खोजते लोग



सुप्रिया रॉय

जब तक आप नाम रहते है और संज्ञा होने की सीमा से बाहर नही जाते, तब तक यह आभास कर पाना भी असंभव है कि आपके अस्तित्व का अर्थ आपके आस पास के समाज के लिए क्या है। चौदह साल की नादान और सपनो की दुनिया मे रहने वाली आरूषि तलवार को अपनी यह कीमत जान का दाम देकर चुकानी पड़ी। जिन लाल बत्तिायो पर वह अपनी स्कूल बस मे बैठ कर साथियो से हॅसी मजाक करते हुए निकल जाती थी, वहा पर लगें मजमो मे भी उसकी बात हो रही है और जिन अखबारो का उसने कभी नाम तक नही सुना था, उनमे भी उसकी मौत को ले कर किस्से और कहानियां रचे जा रहे है।

इस देश मे बल्कि हमारी दुनिया मे अक्सर यह होता है कि एक जीता जागता शख्स अचानक शीर्षको और फाइल नंबरो मे तब्दील हो जाता है और फिर उसके बारे मे वे लोग भी कहानियां कहने लगते है जिनसे उसका कभी वास्ता नही रहा होता। तलवार परिवार जिसे आम तौर पर गुमनाम और एक हसमुख परिवार कहा जाता था, जिसकी पूरी दुनिया अपनी बेटी के लाड प्यार के आस पास घूमती थी, अचानक दंत कथाओ की चीज बन गई है और इस घर का चप्पा-चप्पा इस तरह सार्वजनिक हो गया है जितना शायद ताजमहल या कोई दूसरी मशहूर इमारत भी नही रही होगी।

लोग और उससे भी ज्यादा सीबीआई इन दंत कथाओ की नियमित रचनाकार बन गई है। निष्पाप लोग अचानक गुनाहगार साबित कर दिये जाते है, सीबीआई डॉ. तलवार के यहा कंपाउडर कृष्णा को गैर कानूनी हिरासत मे ले कर उसके तमाम तरह के कानूनी परीक्षण करवा लेता है और बाद मे उसको हत्या के आरोप मे गिरफ्तार कर लिया जाता है। मोहल्ले, पड़ोस और दोस्तो का घेराव होता है और कभी आरूषि को चरित्रहीन बताया जाता है तो कभी उसके पिता की चरित्रहीनता को इस कांड की वजह बताया जाता है। एक त्रासदी मे भी स्वाद खोजने वाले इतने तल्लीन है कि आईपीएल का फाइनल भी टीआरपी मे इस खबर के सामने पिट जाता है। रामदेव से ले कर राजू श्रीवास्तव तक सब फेल हो जाते हैं और हमारी विकृत कल्पनाओं में एक विभत्स हत्या कांड मनोरंजन का पर्याय बन कर जीवित रहता है।

चलिए, पहले पुलिस और अब सीबीआई की बुरी से बुरी कल्पना को एक बार सच मान लें और यह मंजूर कर लें कि जेल में बंद राजेश तलवार ने ही अपनी फुल सी बेटी का पहले सिर फोड़ा और गला काट दिया। लेकिन इस पूरी कथा में आनंद लेने वालों को यह समझ में नही आता कि कानून की अदालत में जाने के पहले समाज की अदालत में अचानक फैसले क्यों होने लगे? एक पिता जिसे अपनी इकलौती बेटी खोने का संताप सता रहा है, उसे सहानुभूति मिलने की बजाय जेल में बंद कर दिया गया और इसके बावजूद बंद रखा गया जब सीबीआई के जासूस सरेआम कह चुके थे कि उन्हें कृष्णा के तौर पर असली कातिल मिल गया है।

विकृत आनंद लेने वालों में सिर्फ हमारे आपके जैसे टीवी देखने वाले या अखबार पढ़ने वाले लोग नही हैं बल्कि उस समय उत्तार प्रदेश पुलिस के आई जी गुरबख्श सिंह का वह चेहरा भुलाए नही भुलता जब वे मीडिया को यह बताने में लगे थे कि कैसे डॉक्टर साहब घर में घुसे और उन्होंने नौकर हेमराज और अपनी बेटी को आपत्तिाजनक स्थिति में देखा और आपे में दोनों की हत्या कर दी। सरदार गुरबख्श सिंह की वर्दीधारी वासना को सिर्फ यह कह कर चैन नही पड़ा, उन्होंने फिर से कहा कि आपत्तिाजनक स्थिति थी लेकिन वे लोग यानी वह नन्ही बच्ची और बूढ़ा हो रहा नौकर भोगविलास में नही डूबे थे। इस मूर्ख ने यह खुलासा करते हुए अपने परम मूर्ख अधिकारियों द्वारा तैयार केस डायरी भी ठीक से नही देखी थी जिसमें पिता अपनी बेटी के कमरे में बैठ कर उसके कम्पयूटर से किस किस को मेल कर रहा है और कौन कौन सी वेबसाइट देख रहा है, इसका पूरा ब्यौरा दर्ज है। अब तो सीबीआई भी कहती है कि नोएड़ा पुलिस ने जांच का कबाड़ा कर दिया।

जैसे सीबीआई ने जांच का बहुत कल्याण किया हो। पन्द्रह दिन से साले जांच करते घूम रहे थे और अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान के विशेषज्ञ साथ में थे लेकिन सोलहवें दिन अचानक राज खुलता है कि पोस्टमॉर्टम में आरूषि के साथ बलात्कार के संकेतों की ठीक से जांच नही की गई। इतने दिन तक इतने वैज्ञानिक परीक्षण करने और आकाश पाताल एक कर देने वाले इन अनपढ़ो को सबसे मूल प्रमाण और कारण की याद इतनी देर में आई। जाहिर है कि उनके लिए भी आरूषि तलवार अब फाइल नंबर से ज्यादा कुछ नही रह गई है।

आखिर यह समझ में आता है कि जिस देश में अपराध पत्रिकाएं और धार्मिक पत्रिकाएं दोनों ही सबसे ज्यादा बिकती हैं, वहां अपराध को और उसके दर्शन को धर्म करार दे देने वाले लोग भी कम नही होंगे। सीबीआई अब मीडिया पर तोहमत मढ़ने में लगी है कि उसे ठीक से और शांति से जांच नही करने दी गई। आज तक सीबीआई, पिछले पन्द्रह वर्षो में अपने द्वारा जांच किए गए मामलों में पन्द्रह फीसदी लोगों को भी सजा नही दिलवा पाई। उस पर वह बात करती है कि उसे सबूत मिलते जा रहे हैं और वह मामला सुलझाने के कगार पर ही है। सीबीआई भी न्याय पालिका की तरह आचरण कर रही है और बयान सबूत होने के पहले ही चाहे जिस को मुजरिम करार देने में जूट जाती है।

आरूषि की मौत के तीसवें दिन मुंबई में भी लगभग मिलती जूलती घटना घटी। इंजीनियरिंग कॉलेज की एक छात्रा अचानक लापता हो गई और उसके खास दोस्तों को ला कर झूठ पकड़ने वाली मशीन पर बिठा दिया गया। इस मशीन से करंट वगैरा तो नही लगता लेकिन उन पर सामाजिक लांछन तो लगा ही। आखिरकार इस लड़की की लाश उसके घर के पलंग के भीतर बने बॉक्स से बरामद हुई और अब उसके माता पिता को झूठ पकड़ने वाली मशीन पर बिठा दिया गया है। जांच में गोपनीयता बनाए रखने के नाम पर हमारी पुलिस और जांच एजेंसियां जितने झूठ बोलती हैं उस हिसाब तो इन सबका दैनिक लाई डिटेक्टर टेस्ट करवाना चाहिए।

यहां आरूषि या मुंबई की वह अभागी लड़की मुल विषय नही है। मूल विषय है हमारे अंत:करण में छिपी बैठी वह वासना और हर घटना के पीछे अपनी दमित कल्पनाओं को आकार देने वाली वह भावना जिसकी वजह से आरूषि तलवार एक दुर्भाग्यवश मरे पात्र का नाम नही बल्कि एक धारावाहिक कथा बन जाती है और जिसे टीवी सीरियल में शामिल होने से रोकने के लिए चैनल को एक सरकारी पत्र लिखना पड़ता है। टीआरपी और सर्कुलेशन धंधें के हिसाब से अच्छे शब्द हैं लेकिन हर शब्द की और हर कर्म की अपनी सीमा होती है और इस सीमा को तोड़ने वालों का अपराध भी तो किसी को तय करना चाहिए। वैसे आप चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि इस विषय पर इतना लिख कर मैंने भी लोकप्रियतावाद की इस दौड़ में शामिल होने की कोशिश की है। आजाद देश है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।

3 comments:

Udan Tashtari said...

बिल्कुल जी आप कहिये. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. बिंदास लिखिये.

indianrj said...

Very rightly said. Various news channels have run their "Breaking News" stories using the sad murder of Arushi. One more thing Alokji, there has to be some responsibility of channels (I don't want to name them, but two very respectable news channels had put their Jasoos(es) or their self-designated investigative reporters, who not only kept touching all the evidences (like bedsheet, cooler, handprint on wall etc.) but telling their own various stories, doing harm to the investigation.

Anonymous said...

शायद आप भी मूल्यों की पत्रकारिता करते होंगे और आपके आसपास जो गलत होता होगा उसका विरोध ज़रूर करतके होंगें .... इसका जवाब सिर्फ आपको ही पता होगा हम ये नहीं कह रहे कि हमें बताइए बस ज़रा सोचिए