आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Friday, April 11, 2008

तिब्बत क्यों, कश्मीर क्यों नहीं






आलोक तोमर
तिब्बत को लेकर भारत सरकार संशय में तो है ही लेकिन यह संशय खुद उसका खड़ा किया हुआ है। चीन में ओलंपिक के बहाने बागी तिब्बतियों ने पूरी दुनिया में बवाल कर रखा है, ओलंपिक मशाल कई बार बुझाई जा चुकी है, अमेरिका में तो इसे गलियों छिपते छिपाते निकाला गया और ऐसा ओलंपिक इतिहास में पहली बार हो रहा है। चीन से अपन को कोई खास प्यार नहीं है और यहां तक की चीनी खाने के भी हम शौकीन नहीं हैं लेकिन ओलंपिक को लेकर उसे जिस तरह से खगोलीय स्तर पर ब्लैकमेल किया जा रहा है वह न सिर्फ आपत्तिजनक बल्कि शर्मनाक भी है।


कितनी बार याद दिलाया जाए कि भारत में नपुंसक बगावत की मशाल लेकर बैठे दलाईलामा को तो छोड़िए खुद भारत सरकार सरेआम स्वीकार कर चुकी है कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा है और वहां जो हो रहा है वह दरअसल चीन का आंतरिक मामला है। इसके बदले में चीन ने सिक्किम पर से अपना कब्जा खत्म किया और अरूणाचल प्रदेश को लेकर जो झमेला चल रहा था उसे भी काफी हद तक निपटा लिया गया है। नाथूलागर्रा भी व्यापार के लिए खुल गया है और जब सब कुछ ठीक होता जा रहा है तो भारत को तिब्बत के मामले में कम से कम तटस्थ तो रहना ही चाहिए।


ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारे पास अपना कश्मीर भी है और उसे ले कर पाकिस्तान की दावेदारी कम विकट नहीं है। कारगिल मिलाकर साढ़े तीन युध्द हो चुके हैं और भले ही इन सब मे ंपाकिस्तान पराजित हुआ हो, जितना बड़ा मुद्दा तिब्बत चीन के लिए नहीं है उससे कई सौ गुना कश्मीर भारत के लिए है। तिब्बत तो पूरा का पूरा चीन के नियंत्रण में है मगर हमारा एक तिहाई कश्मीर अब भी पाकिस्तान के कब्जे में है। तिब्बती तो चीन मे घुस कर कभी हिंसा नहीं फेलाते लेकिन पाकिस्तान की आईएसआई कश्मीर में दिन रात खून की नदियां बहाने वालों को रकम और प्रशिक्षण दोनो उपलब्ध कराती है। कश्मीर के मामले में हमारी मदद करने उस तरह पूरी दुनिया उठ खड़ी नहीं हुई जैसे तिब्बत के मामले में मानवाधिकार संगठनों और खासतौर पर अमेरिका ने अपनी जालिम दिलचस्पी दिखाई।


मेरा पहला और आखिरी सवाल यही है कि हम जब अपने कश्मीर के खूनी और विषाक्त चक्र में इतनी बुरी तरह उलझे हुए हैं तो हमें तिब्बत को लेकर हंगामा मचाने का क्या हक है? तिब्बत में मानवाधिकारो का उल्लंघन हो रहा है यह भी हमें उन्हीं शीर्षकों और चैनलों से पता चलता है जिनसे कश्मीर के बारे में खबरें आती हैं कि हमारी फौजें वहां कत्लेआम और बलात्कार कर रही हैं। जैसे हम कश्मीर से आयी खबरों पर ऐतवार नहीं करते वैसे ही तिब्बत के मामलों में क्यों नहीं होता। हम अगर चीन को अहींसक होने का प्रमाण पत्र नहीं देना चाहते तो न दे लेकिन आज अगर हम ओलंपिक के मामले में चीन के ब्लैकमेल होने में मदद कर रहे हैं तो कल कॉमनवेल्थ के मौके पर कश्मीर के बहाने अपने साथ होने वाले ब्लैकमेल को हम कैसे रोक सकते हैं?
तिब्बत की कहानी अजीब है। वहां के भोले भाले और निषपाप लोगों पर जुल्म हो रहे हैं तो हमें उनका वैसे ही साथ देना चाहिए जैसे मानवाधिकारों के मामले में हम वियतनाम से लेकर कांगो तक चीखते चिल्लाते रहें हैं। तिब्बत एक देश नहीं है यह हम भी स्वीकार करते हैं मगर पिछले पचास साल से वहां के राष्ट्राध्यक्ष दलाईलामा को घर जमाई बनाकर हमने रखा हुआ है। उन पर करोड़ो रूपए खर्च होते हैं और जिन दलाईलामा का नियंत्रण एक हवलदार पर नहीं है उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिल जाता है। भारत में सुनामी आए, भूकम्प आए, महाचक्रवात में लाखों लोग मारे जायें तो यह संयोग नहीं हो सकता कि इन सब हादसों के बाद दलाई लामा दुनिया के किसी दूर दराज के देश में सत्य और अहिंसा का प्रचार करते नजर आते हैं। उन्हें भारत की आपदाओं और विपदाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके बावजूद उनके नेतृत्व में भारत आकर बसे उनके शिष्य भी अब उनसे मोहभंग के शिकार हो चुके हैं और बार बार सवाल कर रहे हैं कि आखिर इस लड़ाई का अंत क्या है। दलाई लामा खुद चीन को लेकर मतिभ्रम के शिकार हैं और अलग अलग बयान देते रहते हैं। कभी वे चीन को अपना मित्र और संरक्षक बताते है तो कभी दुनिया से अपील करने लगते हैं उन्हें उनका अधिकार दिलवाया जाए।
हम अपने कश्मीर को हासिल करने के लिए क्या नहीं कर रहे हैं। जितना हिस्सा हमारे पास है उसी की सुरक्षा में तीन करोड़ रूपए रोज का औसत खर्चा होता है और इसमें सेना और अर्ध सैनिक बलों की पगार शामिल नहीं है। इसके अलावा हमारा विदेश मंत्रालय दुनिया भर के मीडिया और लाबियों मे जिस तरह का अपार खर्चा करता है ताकि कश्मीर पर अपने हक को वह प्रमाणित कर सके। शिमला समझौता एक आदर्श अवसर था जब हम आगे पीछे का सारा हिसाब चुकता कर सकते थे लेकिन हमारी उदारता कहिए या दुनिया में सहनशीलता का सिक्का जमाने कोशिश, हमने वह मौका हाथ से जाने दिया।
जिस गति से भारत की सभी सरकारें चलती रही है और चल रही हैं उससे कश्मीर का मुद्दा हल होने का कोई आसार नजर नहीं आता है। आखिर जो भी लड़ाइयां हुई वे हमने जीती, लेकिन कहा गया कि कश्मीर का हल बंदूक से नहीं निकलेगा। क्यों नहीं निकलेगा भैया? उधर से बंदूक और बारूद दोस्ती के मौसम में भी बरसती है और हम अपनी विरासत पाने के लिए मैदान में जीते हुए युध्द टेबल पर बैठ कर हार जाते हैं। चीन को तिब्बत का मामला सुलझाने दीजिए, अमेरिका की औकात हो तो उसे चीन को इराक और अफगानिस्तान बनाने की कोशिश करने दीजिए। मगर भगवान के लिए पहले अपने कश्मीर के लिए चिंता कीजिए।

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