आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Monday, March 10, 2008

उत्तराखंड में सैनिक शासन की शिकार पार्टी



उत्तराखंड में सैनिक शासन की शिकार पार्टी
राजेंद्र जोशी
उत्तराखंड में अब भाजपा को रिटायर्ड मेजर जनरल भुवन चुंद्र खण्डूड़ी का राज बहुत ज्यादा रास नहीं आ रहा है। भाजपा के कई नेता और खास तौर पर मुख्यमंत्री पद पाने से चूकने वाले भगत सिंह कोश्यारी के समर्थक तो खंडूड़ी के शासन को सैनिक शासन करार दे रहे हैं और इन नेताओं का यह भी कहना है कि पौड़ी चुनाव में भाजपा सैनिक शासन का नतीजा देख चुकी है। पौड़ी चुनाव में भाजपा सिर्फ डाक से डले वोटों की बदौलत अपनी इज्जत बचा पाई थी, नहीं तो उसके प्रत्याशी तथा एक और रिटायर्ड सैनिक अफसर टीपीएस रावत कांग्रेस के सतपाल महाराज से चुनाव हार ही गए थे।

मुख्यमंत्री भुवन चुंद्र खण्डूड़ी के नेतृत्व में उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार ने प्रदेश में अपनी सरकार का एक साला सफर तो पूरा कर लिया है। इस दौरान उनकी सत्ता में पकड़ को तो मजबूत माना जा रहा है मगर उनकी कार्यप्रणाली के चलते प्रदेश के मतदाताओं पर उनकी पकड़ कमजोर हुई है। जिसका उदाहरण पौड़ी लोकसभा का उपचुनाव है।

सत्ता के अनुभव के लिहाज से देश के सर्वाधिक अनुभवी राजनेता नारायण दत्त तिवारी के स्थान पर उत्तराखण्ड के राजकाज की कमान संभालने की कठिन चुनौती उठाने वाले मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खण्डूड़ी ने सरकार के कार्यकाल का एक वर्ष पूरा कर लिया। इस दौरान उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती सरकार से आगे निकलने के लिये अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इस प्रयास में उन्हें कुछ मामलों में सपफलता भी मिली, मगर तमाम कोशिशों के बावजूद वह तिवारी के जाने से उत्पन्न शून्यता को नहीं भर सके।

इस वर्ष के दौरान खण्डूड़ी एक कड़क प्रशासक के रूप में अवश्य ही स्थापित हुए। जहां लोग तिवारी की सहजता एवं शालीनता का दुरुपयोग करते थे, वहीं खण्डूड़ी के राज में बड़े-बड़े नौकरशाहों की भी बोलती बंद हो गयी। खण्डूड़ी ने उत्तर प्रदेश में मायावती की ही तरह नौकरशाही की लगाम कसी हुई है। उनके इस रवैये से प्रशासन भी चुस्त हुआ है। लेकिन इस कड़क मिजाजी के कारण उनकी जनता से ही नहीं बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं एवं यहां तक कि नेताओं और विधायकों तक से भी दूरी बढ़ी है, जिस कारण उन तक जमीनी सच्चाईयां उन तक नहीं पहुंच पायीं। उनकी पार्टी के नेता भी खुले आम खण्डूड़ी की इस कमी को उजागर करने में नहीं चूक रहे हैं।

भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने अपने पूर्ववर्ती नारायण दत्त तिवारी की अच्छाईयों से कुछ सीखा हो या नहीं मगर उन्होंने तिवारी की कमियों को सामने रख कर आगे चलने का प्रयास अवश्य किया है। इस नीति के तहत उन्होंने फिजूलखर्ची रोकने का प्रयास किया है। उनके विरोधी उनके बारे में चाहे जो कहें मगर यह भी सच्चाई कि इस एक वर्ष के कार्यकाल में एक भी घोटाला सामने नहीं आया। मगर अंदरखाने गुपचुप तरीके से कुछ लोगों को विशेष लाभ दिये जाने का मामला चर्चा का विषय जरूर बना है। यह बात दीगर है कि उन्होंने तिवारी सरकार के कथित 56 घोटालों पर बबाल मचाया था मगर वह एक घोटाले को भी साबित नहीं कर पाये जिस कारण उनके शब्दों का वजन हल्का हुआ है।

अपने कार्यकाल के एक वर्ष में भले ही विकास के मोर्चे पर कारगार साबित नहीं हुए हों, मगर उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में कई मोर्चे फतह किये हैं। उनकी सबसे बड़ी सफलता कोश्यारी को पीछे धकेलकर उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनने की थी। एक तरह से उन्होंने कोश्यारी का बहुमत होते हुए और अपना अल्पमत होते हुए भी उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री बनने की अपने जीवन की सबसे बड़ी अभिभाषा पूरी कर दी। इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी के विधायक से सीट खाली कराने के बजाये विपक्षी दल कांग्रेस के ले. टी.पी.एस. रावत से अपने लिये विधानसभा की धूमाकोट सीट खाली करा ली। राजनीति के मोर्चे पर यह उनकी इस वर्ष की सबसे बड़ी सफलता थी, क्योंकि जनरल रावत उनके लिये खतरा साबित हो रहे थे। यही नहीं जो सतपाल महाराज जनरल रावत को खण्डूड़ी का मुकाबला करने के लिये राजनीति में लाये थे, खण्डूड़ी ने उसी जनरल रावत को सतपाल महाराज के खिलाफ खड़ा कर दिया। खण्डूड़ी ने अपने लिये धूमाकोट सीट जीतने के साथ ही अपने द्वारा खाली की गयी गढ़वाल संसदीय सीट को भी हाल ही में हुए उपचुनाव में जनरल रावत को दिलाकर भाजपा की सीट बरकरार रखने में सफलता प्राप्त की।

गत वर्ष खण्डूड़ी ने जब सत्ता संभाली थी तो लग रहा था कि आन्तरिक कलह के कारण वह पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री एवं तत्कालीन प्रदेश भाजपा अधयक्ष भगत सिंह कोश्यारी को खण्डूड़ी के लिये सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा है, लेकिन खण्डूड़ी ने दिल्ली में अपने ऊंचे सम्पर्कों के चलते न केवल कोश्यारी को अपने रास्ते से हटा दिया बल्कि भविष्य का खतरा टालने के लिये उन्हें राजनीति के बियाबान में धकेल दिया है। इस समय खण्डूड़ी को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत होने के साथ ही पार्टी के अपने विरोधियों से भी खतरा काफी कम हो गया है, जबकि उन्हें सरकार बनाने के लिये निर्दलियों और उक्रांद की शरण में जाना पड़ा था।

राजनीति के गलियारो में अपनी पकड़ मजबूत करने के बावजूद खण्डूड़ी की और खासकर भाजपा की पकड़ मतदाताओं पर ढीली होने के संकेत गत 24 फरवरी को हुए गढ़वाल उपचुनाव ने दे दिये हैं। इस संसदीय क्षेत्र के कुल 19 विधानसभा क्षेत्रों में से 11 क्षेत्रों में भाजपा प्रत्याशी जनरल रावत, जो कि खण्डूड़ी के बलबूते पर लग रहे थे, पीछे रह गये। इन में से भी 7 क्षेत्रों में भाजपा के विधायक हैं, जो कि सालभर पहले अच्छे-खासे मतों से कांग्रेस प्रत्याशियों को हराकर जीते थे। इतने अधिक क्षेत्रों में भाजपा का एक साल के अंदर पिछड़ जाना मतदाताओं पर उसकी पकड़ ढीली होने का स्पष्ट सबूत माना जा रहा है। इस उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी की लगभग हार हो चुकी थी, लेकिन ऐन वक्त पर फौजियों के डाक मतपत्रों को किसी भी हाल में जुटा लेने के बाद भाजपा को अपनी इज्जत बचानी पड़ी, वरना सामान्य मतों से कांग्रेस प्रत्याशी सतपाल महाराज की जीत हो गयी थी।

सालभर के अंदर भाजपा की लोकप्रियता के ग्राफ के इस कदर गिरने का असली कारण खण्डूड़ी को ही माना जा रहा है, क्योंकि उन्होंने एक साल पहले जनता को सब्ज बाग दिखाये थे, वे पूरे नहीं हुए। यहीं नहीं खण्डूड़ी ने जिन मुद्दों को लेकर पिछली सरकार को बदनाम किया था उन्हें भी वह साबित नहीं कर पाये, जिससे उनकी अपनी विश्वसनीयता गिरी है। मुख्यमंत्री को विशेषकर विकास के मोर्चे पर नाकामी हाथ लगी है। इस एक साल के अंदर प्रदेश के विकास की गति रुकने का एक प्रमाण यह भी है कि इस सरकार के कार्यकाल में विकास कार्यों के लिये निर्धारित राशि को नियोजन शिल्प के अभाव के कारण खर्च कराना भी एक चुनौती बन गया है। वित्तीय वर्ष समाप्त होने के लिये अब मात्र एक माह रह गया है और खण्डूड़ी सरकार को 4378.63 करोड़ में से अभी 2095.25 करोड़ खर्च करने हैं। यह सरकार शिक्षा, नियोजन, उद्योग, ग्रामीण विकास, चिकित्सा, पर्यटन एवं अवसंरचना विकास आदि तमाम मुद्दों पर सपफलता हासिल नहीं कर पायी।

इन क्षेत्रों में अभी भारी-भरकम राशि खर्च होनी बाकी है। इस सरकार के कार्यकाल में ये उद्योग तो नहीं आये मगर भास्कर एनर्जी जैसे उद्योग यहां से भाग गये। हीरो होण्डा भागने की तैयारी में है। इस सरकार के कार्यकाल में 304 मेगावाट क्षमता की मनेरी भाली परियोजना ने अवश्य ही उत्पादन शुरू किया है, मगर इसका 99 प्रतिशत से अधिक कार्य तिवारी सरकार के कार्यकाल में पूरा हो गया था और उसी सरकार ने ऊर्जा वित्त निगम से कर्ज लेकर इस परियोजना को 2002 में पुन: चालू कराया था। तिवारी सरकार के ही कार्यकाल में इस परियोजना की 16 किलोमीटर लम्बी सुरंग का निर्माण पूरा हुआ था।

इतना ही नहीं अब पार्टी के भीतर खंण्डूडी की नीतियों को लेकर घमासान मचा हुआ है। कबीना मंत्री व राज्यमंत्री स्तर के पदों को लेकर सरकार के भीतर कोहराम है। जिन्हे राज्यमंत्री स्तर मिला उन्हे लाल बत्ती तो नहीं मिली मगर उनके मानदेय में बढ़ोत्तरी जरूर हुई है इसी मानदेय को बढ़ाने व लालबत्ती न देने से सरकार में शीत युध्द जारी है। इनका कहना है सरकार उनका मानदेय न बढाती लेकिन लालबत्ती दे देती जिससे जनता में उनकी रूतबा बढ़ता। लेकिन सरकार ने मानदेय बढ़ाकर सरकार ने उनका अपमान किया है। भाजपाईयों का आरोप यह भी है कि खंण्डूडी ने भ्रष्ट नौकरशाहों को तवज्जो देकर ऐसे लोगों का मनोबल बढ़ाया है।
(शब्दार्थ)

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