आलोक तोमर
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी। सबसे पहले तो यह सवाल की दिल्ली पुलिस के एसीपी राजबीर सिंह जिन्हें पांच बार राष्ट्रपति पदक मिला था और सिर्फ तेरह साल की नौकरी में वे थानेदार से एसीपी बन गए थे और जिनकी वीरता के किस्से हर पुलिस कमिश्नर गाया करता था, उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के पड़ोस में रेवाड़ी के उनके गांव में खेतों के बीच इतनी खामोशी से क्यों हुआ? इसी सवाल से जुड़ा एक और सवाल कि दिल्ली पुलिस के क्या किसी एक सिपाही के पास भी इतनी फुर्सत नही थी कि वे अपने इस हौनहार साथी की अंतिम यात्रा में शामिल हो पाते?
अभी कई सवाल बाकी हैं और उनके जवाब देने से हर कोई कतरा रहा है। साठ से ज्यादा मुठभेढे अौर लाशों की सेंचुरी बना देने वाले राजबीर सिंह की छवि और असर दोनों ही किसी डॉन से कम नही थे। फर्क इतना था कि यह डॉन कानून के दम पर कानून के लिए कानूनी काम करता था। कानूनी और गैर कानूनी में सिर्फ परिभाषा और व्याख्या का फर्क होता है और इस फर्क को जो मिटा लेते हैं वे तलवार की धार पर जरुर चलते हैं मगर समृध्दि और प्रसिध्दि दोनों ही उनका इंतजार कर रही होती है।
इन दिनों हर राज्य की पुलिस के पास विशेषाधिकार प्राप्त कई शाखाएं हैं जिनकी कोई कानूनी सीमा नजर नही आती। काम वे कानून के लिए करते है लेकिन भारतीय दंड विधान तो जैसे उनके लिए लिखा ही नही गया। जिस देश में एफ आई आर से लेकर केस डायरी तक आधी उर्दू और आधी फारसी में लिखी जाती है और अदालतों में मकतूल और मजकूर जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते है वहां कानून की उत्तार आधुनिक व्याख्याएं थानों और हवालातों में होती रहती हैं और दिल्ली में राजबीर सिंह और मुबई में प्रदीप शिंदे जैसे लोग नायक बनते हैं फिर उनके प्रतिनायक बनने की खबर आती है और आखिरकार खलनायक साबित होते हैं। मुंबई के एक भूतपूर्व पुलिस कमिश्नर और कई आई पी एस अधिकारी इस समय जेल में पडे हुए हैं। उन पर अपराधियों से संदिग्ध सांठगांठ का आरोप है।
पुलिस की नौकरी रौबदार जरुर मानी जाती है लेकिन पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों की जीवन दशा सुधारने का कोई ठोस इंतजाम अभी तक नही हुआ। कम से कम थानेदार स्तर के पुलिस वाले लगभग चौबीस घंट की डयूटी करते हैं और कई बार तो उन्हें चार-चार दिन तक नींद नसीब नही होती। हालांकि यह कोई बचाव का तर्क नही है लेकिन अगर वे थाने में बैठ कर शराब पीते हैं या खीझ में अपराधियों पर हाथ उठाते हैं तो उनकी मानसिकता समझी जा सकती है। पुलिस वाले कोई मंगल ग््राह से उतर कर नही आते। वे भी हमारे आपके बीच के लोग हैं। कई पुलिस वालों ने उदाहरण देकर बताया कि जिन लोगों को उन्होनें जेब काटते, जुआ खेलते, टिकट ब्लैक करते या भैंस चुराते पकड़ा था वे भी नेता हो गए और अब उन्हें सलाम करना पड़ता है। किसी नामी अपराधी को अदालत तक पहुचाने से पहले पुलिस वाले भी दस बार सोचते हैं कि कल को यही आदमी सांसद या मंत्री बनकर आ जाएगा और उसका तबादला करवा देगा।
तबादले से ज्यादा संकट में डालने वाला शब्द पुलिस वालों की परिभाषा में नही है। इसलिए नही कि उन्हें एक थाना ताजमहल लगता है तो दूसरा क्र्र्रब्रिस्तान लेकिन जब वे संकडो या हजारों मील दूर नौकरी कर रहे होते हैं तो उनके ध्दारा पकड़े गए अपराधियों पर चल रहे मुकदमों के सिलसिलों में उन्हें गवाही देने आना पड़ता है और जो यात्रा भत्ताा उन्हें दिया जाता है वह पिछली सदी के दामों के हिसाब से होता है। पुलिस एक्ट में बार बार संशोधन होते हैं लेकिन इस अटपटेपन की ओर किसी का ध्यान नही जाता।
इसका अर्थ यह कतई नही है कि पुलिस के परामानवीय और संविधानेतर कर्मो को सिरे से ही खारिज कर दिया जाए। पता नही किसने कहा था कि पुलिस गुंडों का एक संगठित और मान्यता प्राप्त गिरोह है। हम उस हद तक नही जाएंगे लेकिन थानों से लेकर बाजारों तक खर्चे पानी की जो संस्कृति अब समाज ने लगभग स्वीकार ली है, उसे मानने में हिचक तो जरुर होती है। पुलिस में सिपाही से लेकर महानिदेशक स्तर के दोस्त हैं और उनसे इस परपंरा के बारे में जो सुनने को मिलता है वह कम हद्रय विदारक नही है। मैं और मुझे विश्वास है कि आप भी ऐसे बहुत सारे इलाकों के बारे में जानते होगें जहां के थानों की बकायदा नीलामी होती है और नीलामी की यह रकम जाहिर तौर पर बड़े अफसर वसूलते हैं। एक चौकी इंचार्ज दोस्त को एक प्लाजमा टी वी खरीदते देकर बधाई दी तो वह दो मोटी गालियां देकर बोला कि डी सी पी साहब की बहन की शादी है और उसका दहेज खरीद रहा हूं। ये वे लोग हैं जिन्हें ऑफिसर्स क्लब के दरवाजे के आगे नही जाने दिया जाता और डयूटी पर भी उन्हें मिलने वाला पेट्रोल कम पड़ता है इसलिए वे बाहर से वसूली करते हैं। वसूली जब करते ही हैं तो दो पहियों पर क्यों चले? आप भी बहुत सारे सिपाहियों को जानते होगें जो कम से कम मारुति कार में चलते हैं और महंगी शराब पीते हैं।
राजबीर सिंह के बहाने यह सब कहने का अवसर इसलिए है कि वर्तमान ढांचे में आप सिर्फ इसी स्तर तक उंगली उठा सकतें हैं। वर्ना बहुत सारे पुलिस आयुक्त हैं जिनकी जीवन शैली बादशाहों को भी शर्मिंदा कर दे। वे तीस चालीस हजार रुपए महीने की पगार में लगातार जहाजों में धूमते हैं और उनके बंगले में तीन चार गाड़ियां तो खड़ी ही रहती हैं। बहुत सारे पुलिस वालों ने एन जी ओ का धंधा शुरु कर दिया है। उनमें से कुछ अपवाद स्वरुप अच्छी नीयत वाले हैं लेकिन ज्यादातर ने समाजसेवा को दुकान बना दिया है। दिल्ली पुलिस के एक भूतपूर्व कमिश्नर की धर्म पत्नी ने तो जो एन जी ओ बनाया है वह पांच सितारा है और वहां हैलीपैड से लेकर रनवे तक बनाया जा रहा है। जाहिर है कि ये लोग समाजसेवा का शांपिग सेंटर खोल कर बैठे हुए हैं।
राजबीर सिंह चले गए। अब तक जो पता चला है उससे लगता है कि उनकी बहादुरी उन्हें काफी दौलत देकर गई थी। ऐसी दौलत मौत के साथ ही लापता हो जाती है। हम अपने नायकों और खलनायकों में भेद कर पाएं इसके लिए जरुरी है कि हम पूजा करने के पहले सोचें और गाली देने के पहले स्थगित हो जाएं। शुरुआत अहमद फराज़ के एक शेर से की थी इसलिए अंत भी उन्ही के एक कलाम से। कलाम है - मेरी बर्बादी में तू भी है बराबर का शरीक, मेरे किस्से लोगों को सुनाता क्या है।
1 comment:
मुझे गर्व होता है कि मैं आलोक तोमर का छोटा भाई हूं । आलोक तोमर का परिचय उनके इन शब्दों से ज्यादा कोई नहीं दे सकता । उनके लिए बेबाकी एक शब्द नहीं है बल्कि एक जीवन शैली है । उन्होंने जितनी तकलीफें इस व्रत को निभाने में उठाई हैं वो एक तपस्वी के लिए ही मुमकिन है । मैने देखा है वो दौर जब एक आलोक तोमर ने अपनी पूरी बिरादरी को कुठित कर दिया था और उनसे नये और पुराने पत्रकारों के पास सिर्फ एक ही काम बचा था । आलोक तोमर को बुरा और बुरा बताओ ताकि लोग आपको अच्छा समझें । मैं भावुक हूं और उनके दीर्घ जीवन और उससे भी ज्यादा अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता हूं ताकि बेबाकी बची रहे । एक बात और बेबाकी में तारीफ के हिस्सेदार भले ही आलोक जी रहे हों पर उसके खराब साइड इफेक्टस को सुप्रिया भाभी ने बहुत झेला है । उनको भी सलाम ताकी बेबाकी का साथी जमा रहे ।
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