आलोक तोमर को लोग जानते भी हैं और नहीं भी जानते. उनके वारे में वहुत सारे किस्से कहे जाते हैं, ज्यादातर सच और मामूली और कुछ कल्पित और खतरनाक. दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए आलोक तोमर ने भारत में काश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया है तो दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए हैं. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले हैं और रजनीश से भी. वे टी वी, अखबार, और इंटरनेट की पत्रकारिता करते हैं.

Wednesday, March 12, 2008

समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल




शब्दार्थ साप्ताहिक पैकेज
12 मार्च, 2008

समाजवादी जॉर्ज पर इजरायली मिसाइल
आलोक तोमर
ईमानदारी की प्रतिमा और समाजवाद के प्रतीक कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडीज पर अलग-अलग तरीकों और अलग-अलग कोनों से वार होते ही रहे हैं, लेकिन इस बार हमला मिसाइल का है। मिसाइल का यह हमला अरब सागर के किनारे से निकल कर गंगा के किनारे बिहार में जा कर राजनीति करने वाले जॉर्ज फर्नांडीज का बिहार में अस्तित्व साफ कर देने वाला है। इसीलिए नहीं कि वास्तव में उन्होंने रिश्वत ली थी, जैसा कि आरोप है, बल्कि इसीलिए कि यह आरोप उन पर लगा, उन्होंने नैतिकता का अभिनय करते हुए फटाक से मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और कुछ दिन बाहर रहने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा से वापस देश के रक्षा मंत्री बन गए।

जॉर्ज फर्नांडीज और उनकी सहेली जया जेटली के अलावा इस कांड में और भी अभियुक्त हैं और इनमें से सबसे चौंका देने और चमका देने वाले नाम नौसेना के अध्यक्ष रहे एडमिरल सुशील कुमार नंदा, उनके बेटे सुरेश नंदा और उनके भी बेटे संजीव नंदा के हैं। संजीव नंदा की किस्मत तो कुछ ज्यादा ही खराब है। वे अपने जन्मदिन से ठीक पहले हुई एक पार्टी के बाद देर रात हथियारों की दलाली से हुई काली कमाई से खरीदी गई बीएमडब्लू कार से आठ लोगों को कुचल कर मार डालने के मामले में अदालत का सामना कर ही रहे थे और 75 लाख की जमानत पर बाहर थे कि आयकर अधिकारियों को रिश्वत देने के आरोप में फिर अंदर पहुंच गए।

जॉर्ज फर्नांडीज चूंकि बडे अादमी हैं इसीलिए अभी तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन तक हथकड़ियां पहुंचना तो दूर, यह लिखने तक उनसे किसी किस्म की कोई सरकारी पूछताछ भी नहीं की गई। सीबीआई इस दलाली की जांच कर रही है और उसकी शब्दावली में प्राथमिक रपट तैयार हो चुकी है और एफआईआर दाखिल होना बाकी था। 9 अगस्त, 2006 को एफआईआर ही दाखिल कर दी गई। मजदूरों और किसानों के नेता और समाजवाद के स्वयंभू प्रवक्ता और देश के भूतपूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज देश की नौसेना के भूतपूर्व अध्यक्ष सुशील कुमार नंदा के साथ भ्रष्टाचार और षड़यंत्रपूर्वक देश का पैसा हजम करने के अभियुक्त हैं।

जॉर्ज बूढ़े हो चुके हैं और हो सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव वे इसी बहाने न लड़ने का फैसला करें कि उन पर इल्जाम है। हालांकि राजनीति में इस बात की संभावना बहुत कम होती है। आखिर शिबू सोरेन से ले कर शहाबुद्दीन और पप्पू यादव तक चुनाव लड़ते ही रहे हैं और जीतते भी रहे हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज ने राजनीति में और खास तौर पर अपने जनता दल यूनाइटेड में नेतृत्व का नैतिक अधिकार सिरे से खो दिया है। उसे दोबारा अर्जित करना असंभव नहीं तो, दुर्लभ जरूर है।

इस घपले की जांच के लिए जनवरी, 2003 में न्यायमूर्ति एस एन फूकन के नेतृत्व में एक आयोग बैठा था और उसी की रपट पर सीबीआई अमल कर रही है। इसके पहले इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी बनाए गए थे, मगर अज्ञात कारणों से उन्हें हटा दिया गया। जॉर्ज फर्नांडीज जाहिर है कि दो न्यायमूर्तियों और देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के घेरे में हैं और यह घेरा इसीलिए और जटिल हो जाता है क्योंकि जब बराक मिसाइलें खरीदी जा रही थीं, तब सेना के शोध और विकास संगठन डी आर डी ओ के मुखिया एपीजे अब्दुल कलाम थे। उन्होंने इस खरीद का विरोध किया था। विचित्र बात यह है कि जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर बिठाने में भाजपा दूसरी बार भी विचार नहीं किया, उसी की राय को सीबीआई के दस्तावेजों में अब तक शामिल नहीं किया गया है। वैसे यह पूरा मामला ज्यादा शर्मनाक इसीलिए भी है क्योंकि देश का रक्षा मंत्री, देश का नौसेना अध्यक्ष और देश के एक भूतपूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह का नाम भी इसमें आता रहा है। नटवर सिंह कांग्रेस में जरूर थे, लेकिन जॉर्ज फर्नांडीज का कहना है कि बराक मिसाइल कंपनी के कारोबारी दूतों से उन्हें नटवर सिंह ने ही मिलवाया था। उनका यह भी कहना है कि मैं तो सबसे मिलने के लिए तैयार रहता हूं और मेरे घर के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। इस भोलेपन पर फिदा होने का मन करता है। गनीमत है कि जॉर्ज फर्नांडीज महिला नहीं हुए, वरना सनातन गर्भवती रहते!

सीबीआई की एफआईआर के अनुसार अक्टूबर, 1998 में सुरेश नंदा एक एजेंट की हैसियत से जया जेटली और समता पार्टी के कोषाध्यक्ष आर के जैन से जॉर्ज फर्नांडीज के बंगले पर ही मिले थे, जिसके दरवाजे कभी बंद नहीं होते। एफआईआर के अनुसार सुरेश नदां ने जैन को एक करोड़ रुपए दिए थे, जो उसने मंजूर भी किया है। लेकिन एफआईआर के अनुसार ये पैसे जॉर्ज फर्नांडीज को बराक के हित में खुश करने के लिए उनकी सहेली जया जेटली को सौंप दिए गए थे। यहां तक तो एफआईआर में वही लिखा है, जो तहलका के खुलासे में आ चुका था। एफआईआर में नई बात यह है कि एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी द्वारा 2 नवंबर, 1998 को जॉर्ज फर्नांडीज को लिखा गया एक पत्र मौजूद है, जिसमें बराक मिसाइलों को नौसेना के बेड़े में शामिल नहीं करने की अपील की गई थी।

26 नवंबर, 1998 को नौसेना मुख्यालय में रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर भी काम कर रहे श्री कलाम को पत्र लिख कर पूछा कि बराक मिसाइलों के आयात में इतनी देरी क्यों हो रही है? इसका जवाब श्री कलाम ने 20 जनवरी, 1999 को दिया और उसमें लिखा था कि 3 अक्टूबर, 1997 को ही सुरक्षा मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में हुए फैसले के हिसाब से बेहतर मिसाइल तंत्र प्राप्त करने का फैसला किया जाएगा। इसमें यह भी कहा गया था कि त्रिशूल मिसाइलें भारत बना रहा है और उससे बहुत उम्मीदें हैं। हालांकि अब त्रिशूल परियोजना रद्द कर दी गई है। कलाम के जवाब के बावजूद जॉर्ज फर्नांडीज के दोस्त दलालों के दबाव में नौसेना मुख्यालय ने फिर लिखा कि फैसला होता रहेगा, लेकिन मोल भाव समिति बना कर उसकी बैठकें शुरू कर देनी चाहिए।

बेटा दलाल था और पिता जी नौसेना के अध्यक्ष थे। एडमिरल सुशील नंदा ने 15 जनवरी, 1999 को प्रस्ताव रखा कि कम-से-कम दो मिसाइलों का आयात कर ही लिया जाए। 23 जून, 1999 को श्री कलाम ने इस प्रस्ताव को बेहुदा बताया। कलाम का तर्क था कि अब तक आयात किए गए रक्षा उपकरणों में से पचास प्र्रतिशत बेकार साबित हुए हैं और अगर बराक इजरायल से आयात की ही जाती है, तो उसके पुर्जों के लिए भी भारत को इजरायल के सामने बंधक बनना पड़ेगा। मतलब था-साफ इनकार। एडमिरल नंदा कहां मानने वाले थे? उन्होंने 25 जून, 1999 को ही यानी सिर्फ अड़तालीस घंटे में कलाम से मुलाकात की और नया प्रस्ताव दिया कि नौसेना मुख्यालय ने 1996 में ही बराक मिसाइलों को आयात करने की अनुमति दे दी थी। उस समय रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव थे और उन्होंने इस संबंध में भेजे गए पत्र का जवाब भी नहीं दिया था। कलाम से मिल कर नंदा जॉर्ज फर्नांडीज के पास पहुंचे और 28 जून, 1999 को उन्होंने कलाम की राय टाल कर बराक के आयात की अनुमति दे दी। अगर आप गौर करें तो कुल पांच दिनों में चार सौ करोड़ का यह घपला संभव हो गया।

तत्कालीन रक्षा सचिव टी आर प्रसाद ने इसके बावजूद 30 अगस्त, 1999 को माननीय रक्षा मंत्री को पत्र लिखा और याद दिलाया कि मंत्रिमंडलीय समिति ने मिसाइलों के आयात को स्थगित करके इसका फैसला अगली सरकार के लिए छोड़ दिया है और समिति की जानकारी के बगैर कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर जॉर्ज फर्नांडीज भी इस समिति के सदस्य थे और तकनीकी रूप से उन्हें भी इसकी जानकारी थी। फिर 2 मार्च, 2000 को मंत्रिमंडलीय समिति ने यह सौदा मंजूर कर दिया और मंजूरी के इस फैसले ने तीन लाइन में श्री कलाम की आपत्तियों को खारिज भी कर दिया। फटाफट मोल भाव हुआ और पहली सात बराक मिसाइलों को खरीदने का फैसला 23 अक्टूबर, 2000 को हो गया। यह सौदा आठ अरब रुपए का था। आर के जैन का बयान कहता है कि इसमें से तीन प्रतिशत जॉर्ज फर्नांडीज और जया जेटली के पास गया और आधा प्रतिशत उसे मिला। अदायगी नौसेना के अध्यक्ष के बेटे सुरेश नंदा के हाथ से हुई थी।

इस सौदे में लेन-देन भी कम संदिग्ध नहीं है। मोटरोन-टरबियोन नाम की एक कंपनी ने सुरेश नंदा की कंपनी डायनाट्रोल सर्विसेज के खते में मोटी रकम जमा की। यह रकम निकल कर मैग्नन इंटरनेशनल ट्रेडिंग में चली गई और वहां से निकली तो यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के खाते में पहुंच गई। यूरेका सेल्स कॉरपोरेशन के मालिक कोई सुधीर चौधरी हैं, जो नंदा के रिश्तेदार भी हैं और व्यापारिक सहयोगी भी। कलाम के हटने के बाद भी डीआरडीओ बराक आयात का विरोध करता ही रहा। त्रिशूल परियोजना के भूतपूर्व परियोजना प्रबंधक खुद बराक का प्रदर्शन देखने इजरायल गए थे और उन्होंने भी विरोध में एक पत्र लिखा। लेकिन पैसा आ चुका था, सौदा हो चुका था और खुद रक्षा मंत्री की मेहरबानी थी इसीलिए सौदे को कोई रोक नहीं सका। जॉर्ज फर्नांडीज जब सीबीआई के सामने जवाब देने बैठेंगे, तो आज से सुन लीजिए कि भूल जाने का नाटक करेंगे क्योंकि यह नाटक वे एक बार मेरे साथ भी कर चुके हैं। दाऊद इब्राहीम से मेरे दुबई में हुए इंटरव्यू का टेप वे मेरे ऑफिस आ कर ले कर गए थे और जब वापस मांगा, तो उन्होंने पूछा-कौन सा टेप? पता नहीं उस टेप का सौदा कितने में हुआ था।





नेपथ्य
आलोक तोमर
देवबंद का सवाल
भारत में ही नहीं, एशिया के इस्लाम में पर्याप्त इज्जत रखने वाली देवबंद की दारूल उलूम ने जेहादियों के खिलाफ जो फतवा जारी किया है, उसका यूपीए सरकार ने स्वागत तो बहुत किया, मगर अब जब खुफिया एजेंसियां बता रही हैं कि देवबंद में एक बड़ा धमाका हो सकता है, तो प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन के माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है।

पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री की मौजूदगी में नारायणन ने रॉ, आईबी और सेना गुप्तचर शाखा के प्रमुखों की एक बैठक बुलाई। मुद्दा मूल रूप से देवबंद था। गुप्तचर अधिकारियों ने कहा कि दारूल उलूम देवबंद में जिस भौगोलिक स्थिति पर है, उस पर हमला करना बहुत आसान हो जाता है। इसके लिए जरूरी है कि पूरे देवबंद में और आने वाले रास्तों पर निगरानी रखी जाए और महत्वपूर्ण बिंदुओं पर कमांडों तैनात किए जाएं। इसके अलावा मोबाइल जैमर लगाने की बात भी वहां कही गई। यह वार्तालाप जब नारायणन के एक आईपीएस दूत के जरिए लखनऊ तक पहुंचा, तो मुख्यमंत्री मायावती का जवाब अप्रत्याशित नहीं था। उन्होंने कहा कि देवबंद हमारे इलाके में है और उसकी सुरक्षा हम कर लेंगे। दिल्ली की जो सरकार राज्य के मुख्यमंत्री को एसपीजी नहीं दे सकती, वह वोटों के लिए देवबंद पर सुरक्षा घेरा कड़ा करना चाहती है। हमारे अपने गुप्तचर विभाग हैं और हम उनकी ही दी गई जानकारी पर विश्वास करेंगे।

चमचों की प्रतियोगिता
कांग्रेस में 10, जनपथ मक्खन सप्लाई का एक बड़ा राजनैतिक केंद्र है और वहां लगातार यह कोशिश चलती रहती है कि कौन अपने आप को मैडम के सबसे ज्यादा करीब सिध्द कर सके। अब यह बीमारी भाजपा में भी शुरू हो गई है।

इस प्रतियोगिता में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बाजी मार ली है। हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में भाजपा कार्यकर्ताओं की एक बड़ी बैठक रखी गई थी, जिसमें भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिए गए लालकृष्ण्ा आडवाणी की पत्नी कमला आडवाणी भी मौजूद थीं। एक के बाद एक वक्ता श्रीमती आडवाणी को भाभी कह कर संबोधित कर रहे थे। इनमें से कुछ तो ऐसे थे, जो श्री आडवाणी के पोते नहीं, तो बेटे की उम्र के जरूर होंगे।

फिर राजनाथ सिंह की बारी आई और भाजपा के इतिहास में सबसे उपेक्षित सिध्द हुए अध्यक्षों में से एक राजनाथ सिंह ने अपना भाषण यों शुरू किया-मैं आदरणीय लाल कृष्ण आडवाणी जी और अपनी मां कमला जी के चरणों में अपने प्रणाम अर्पित करता हूं। अचानक एक नेता की पत्नी से एक पार्टी की मां के अवतार में आ गईं श्रीमती कमला आडवाणी ने भी आशीर्वाद का हाथ उठा दिया। वैसे, भाजपा अध्यक्ष और कमला जी हमउम्र ही होंगे।

बच्चे की नई सलाह
कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण बच्चे यानी राजकुल के राजकुमार राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के नेताओं को नई सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि विधायकों और सांसदों को राजमार्गों या दूसरी सड़कों पर सबकी तरह चुंगी या टोल टैक्स दे कर ही निकलना चाहिए।

दिल्ली में यमुना के पुल पर बने डीएनडी फ्लाई वे के संचालकों में से एक राहुल गांधी के मित्र भी हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी के साथ पढ़ चुके हैं। हो सकता है कि यह राय वहीं से आई हो क्योंकि कोई भी लाल बत्ती वाला इस फ्लाई वे पर निकलते हुए टोल टैक्स नहीं देता और कई बार तो छोटे-बड़े वीआईपीओ के साथ कारों का पूरा काफिला होता है। कुलियों और किसानों के बाद अब लगता है कि राहुल गांधी टोल टैक्स को भी एक चुनावी मुद्दा बना ही डालेंगे।

महिलाएं और आदर
मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और अब विधायक दिग्विजय सिंह महिलाओं का बहुत आदर करते हैं और जरूरी नहीं है कि यह महिला श्रीमती सोनिया गांधी ही हों।

दिग्विजय सिंह हाल ही में जब मध्य प्रदेश विधानसभा में एक जरूरी बहस में हिस्सा ले रहे थे, तभी दर्शक दीर्घा में उनकी पत्नी आशा सिंह आ कर बैठ गईं। पत्नी से नजर मिलते ही दिग्विजय सिंह ने उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। भाजपा के सदस्यों के बीच इस मामले पर ठहाके लगने लगे और बातचीत में चतुर दिग्विजय सिंह ने विधानसभा अध्यक्ष ईश्वर दास रोहानी को संबोधित करके कहा कि अध्यक्ष महोदय, जो लोग राजनीति में महिलाओं को महत्व नहीं देते, उन्हें मेरे अपनी पत्नी को सम्मान देने पर आपत्ति है। एक और ठहाका लगा, लेकिन दिग्विजय सिंह ने आगे जो कहा, उससे ठहाका स्थगित हो गया। दिग्विजय सिंह ने कहा कि मैं तो अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से प्रेरणा लेता हूं और अपनी पत्नी की पूरी इज्जत करता हूं। यह बात अलग है कि मैं अपनी राजनीति में पत्नी को शामिल नहीं करता, उनके लिए लोकसभा का टिकट नहीं मांगता और उनसे डंपर का कारोबार नहीं करवाता।

खामोश शाहरुख
शाहरुख खान बॉलीवुड के तो किंग कहे ही जाते हैं, लेकिन वे सरेआम स्वीकार करते हैं कि लोगों के घर शादी-ब्याह या बच्चे के नामकरण या मुंडन के मौके पर नाचने में भी उन्हें कोई ऐतराज नहीं है अगर दाम मिल जाए तो।

शाहरुख बहुत सारी निजी पार्टियों में नाच कर नाम और नामा दोनों कमा चुके हैं। हाल ही में एक फिल्म समारोह के दौरान शाहरुख खान संचालन कर रहे थे और उन्होंने अक्षय कुमार के डांस के बाद कहा कि अब मुझे डर लगने लगा है कि मेरी जगह पार्टियों में तुम नाचोगे। अक्षय कुमार जो आम तौर पर किसी से झगड़ा या झंझट मोल नहीं लेते हैं, ने तपाक से जवाब दिया कि गौरी भाभी का मेरे पास फोन आ चुका है कि वे फिर मां बनने वाली हैं और मुझे तब नाचना पड़ेगा। किंग की बोलती बंद हो गई। दर्शकों में मौजूद गौरी खान ने तो मजाक में ही सही, अक्षय कुमार की ओर हवा में मुक्का तान दिया।

कहां गए ठाकुर साहब?
फिल्म जोधा-अकबर को ले कर देश भर के राजपूत गुस्से में हैं और इतिहासकार भी अब साबित कर रहे हैं कि बादशाह अकबर की पत्नी का नाम जोधा बाई नहीं था और कुछ तो यह भी कह रहे हैं कि यह जहांगीर की पत्नी का नाम भी नहीं था।

यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर राजपूत संगठन बॉलीवुड को ध्वस्त कर देना चाहते थे। जहां-जहां भाजपा सरकारें थीं, उन्हें मदद भी मिली और फिल्म के प्रदर्शन पर सरकारी प्रतिबंध भी लगा। और तो और मायावती ने भी अपने ठाकुर वोट बैंक का खयाल रखा और फिल्म पर रोक लगा दी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने सेंसर बोर्ड के प्रमाण-पत्र के बहाने यह रोक स्थगित कर दी। यहां पर सब हैरान इस बात से हैं कि देश के सारे ठाकुर नेता इस मुद्दे पर खामोश क्यों हैं? न राजनाथ सिंह कुछ बोल रहे हैं, न जसवंत सिंह, न दिग्विजय सिंह, न अमर सिंह, न राजा भैया और न अर्जुन सिंह। उत्तर प्रदेश के क्षणभंगुर मुख्यमंत्री रहे ठाकुर जगदंबिका पाल ने एक बयान दिया और उसके बाद जैसे उन्हें सांप सूंघ गया। इन सब नेताओं को वोटों की चिंता होगी।
(शब्दार्थ)

क्योंकि हॉकी क्रिकेट नहीं है
आलोक तोमर
कवंर पाल सिंह गिल को लगता है कि जीते जी मोक्ष प्राप्त हो चुका है। लगभग अस्सी साल में पहली बार भारत की हॉकी टीम ओलंपिक जीतना तो दूर, वहां के मैदान में जाने लायक भी नहीं बची और इस पर जब गिल साहब की राय पूछी गई, तो उनका कहना था कि वे वक्त आने पर जवाब देंगे। भारत के राष्ट्रीय खेल को मोहल्ला स्तर का गिल्ली-डंडा बना देने वाले महारथियों से ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी। गिल साहब से तो और भी क्योंकि वे भारतीय हॉकी फैडरेशन के अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन उनका ज्यादातर समय या तो जाम के साथ बीतता है या जाम के बाद होने वाली उनकी हरकतों की वजह से अदालतों में माफी मांगते हुए।

आज हॉकी के लिए और इसीलिए देश के लिए शर्मनाक दिन तो है ही, मगर आखिरी बार हॉकी का विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान और बाद में नेता बन गए असलम शेर खान का गुस्सा भी कम जायज नहीं है। खान कहते हैं कि जितने भी खेल एसोसिएशन या फैडरेशन हैं, उनमें खिलाड़ियों के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि यह बात सबके लाड़ले क्रिकेट पर भी लागू होती है, मगर क्रिकेट दनादन आगे बढ़े जा रही है और हॉकी खेलने वालों को कुछ ऐसी नजर से देखा जाता है, जैसे हवाई जहाज में चलने वाले उतरते समय रन वे के पास बनी झुग्गियों को देखते हैं।

सवाल सिर्फ यह नहीं है कि हॉकी की इतनी दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है। क्रिकेट को छोड़ कर और एक हद तक टेनिस और शतरंज के अलावा अपने देश में लगता ही नहीं कि कोई खेल खेला जाता है। अगर शक हो तो आने वाले कॉमनवैल्थ खेल देख लीजिएगा, जिसमें मेजबान हम होंगे और सारे मैडल मेहमान ले जाएंगे। क्रिकेट की निंदा करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन जो बात सच है, वह कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। आपने देखा कि टीम इंडिया के सितारे आस्टे्रलिया को उसी की जमीन पर निपटा कर भारत लौटे, तो उनकी दीन-दुनिया ही बदल गई। साइकिलों पर चलने वाले जहाज चार्टर करने की हालत में आ गए और उनका अभिनंदन ऐसे किया गया, जैसा करगिल के विजेताओं का भी नहीं किया गया था।

उधर हॉकी की दशा देखिए। हॉकी का बड़े से बड़ा टूर्नामेंट जीत लिया जाए, तो भी भारत सरकार डेढ़ लाख से ले कर चार लाख रुपए से ज्यादा का इनाम नहीं देती। यह इनाम भी टीम के चौदह खिलाड़ियों में बंट कर कितना रह जाता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हॉकी के खिलाड़ियों को विदेश भेजने के लिए सरकार के पास अपवाद स्वरूप ही पैसे होते हैं। उनके प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम इसीलिए नहीं मिलते क्योंकि उन्हें हमारे देश के शाही खेल में बुक करवाया हुआ होता है।

भारत ने पहली बार 1928 में एर्म्स्टडम में ओलंपिक में टीम उतारी थी और हालैंड को तीन गोल से हरा कर स्वर्ण पदक जीता था। हारने वाली टीम को तो एक भी गोल दागने का मौका नहीं दिया गया। 1928 से 1956 के बीच के 28 सालों में भारत ने ओलंपिक में लगातार छह स्वर्ण पदक जीते और इस पूरे दौर में भारत ने चौबीस ओलंपिक मैच खेले, सारे जीते और कुल 178 गोल दागे। पहली बार 1960 में इन 28 जीतों के बाद भारत सिर्फ एक गोल से रोम ओलंपिक में पाकिस्तान से हार गया था। संयोग से इसी ओलंपिक में भारत के अभी तक के सबसे तेज धावक माने जाने वाले मिल्खा सिंह सेंकेंड के लगभग सौवें हिस्से से पदक पाने से चूक गए थे।

अगले ओलंपिक में यानी 1964 में टोक्यो में भारत ने अपना स्वर्ण पदक वापस ले लिया और आखिरी स्वर्ण पदक 1980 में मॉस्को में जीता गया था। इसके बाद की पतन गाथा आपको मालूम ही है। हम किंवदंतियों और भूली हुई दंत कथाओं की तरह ध्यानचंद और कुंवर दिग्विजय सिह बाबू को याद करते हैं। इन दोनों को जादूगर कहा जाता है। 1949 में जब बाबू भारतीय टीम के कप्तान थे तो दुनिया की सभी टीमों ने मिल कर जो 236 गोल किए थे, उनमें से 99 सिर्फ बाबू के थे।

ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार भी भारतीय टीम में थे और शानदार खिलाड़ी माने जाते थे। ध्यानचंद के बारे में तो यह मशहूर है कि गेंद उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी और गोल तक पहुंच कर ही छूटती थी। कई शिकायतों के बाद उनकी स्टिक की जांच भी की गई कि कहीं इसमें कोई चुंबक तो नहीं लगा हुआ है। उनके छोटे भाई रूप सिंह भी उसी टीम में थे और सबसे तेज खिलाड़ियों में से एक थे। हॉकी के प्रति रूप सिंह का समर्पण इस हद तक था कि वे झांसी से बस में बैठ कर भिंड में लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके हमारे स्कूल में हॉकी सिखाने आते थे और हॉस्टल के एक कमरे में जमीन पर सोते थे। खाना भी वे इटावा रोड के एक ढाबे में खाते थे।

अब तो हॉकी हमारे लिए मुगल काल के इतिहास की तरह कोई पुरानी याद बन कर रह गई है। भारतीय हॉकी फैडरेशन की हालत इतनी खराब है कि उसकी बैठकों में या तो लोग पहुंचते नहीं हैं या पहुंच कर फिर झगड़ा करते हैं। अपने तानाशाह रवैये के लिए मशहूर कंवर पाल सिंह गिल और भारतीय फैडरेशन के महासचिव ज्योति कुमारन को तो अंदाजा भी नहीं है कि दुनिया में लोग भारतीय हॉकी का कितना मजाक उड़ा रहे हैं। यह बात अलग है कि पूरी दुनिया में हॉकी की दशा खराब है क्योंकि यह क्रिकेट नहीं है। सच तो यह है कि 2012 के लंदन ओलंपिक में हॉकी को शामिल किए रखने के बारे में बाकायदा मतदान हुआ और सिर्फ एक वोट से हॉकी बची रह गई। यह एक वोट भारत का नहीं था क्योंकि भारतीय प्रतिनिधि इस बैठक में जाने के लिए टिकट खरीदने का पैसा भारत के खेल मंत्रालय ने मंजूर नहीं किया था। इसीलिए किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आखिरी ओलंपिक हमने 1980 में जीता था और आखिरी विश्व कप 1975 में।

महिला हॉकी पर चक दे इंडिया बनी तो अचानक लोगों को लगा कि हॉकी का जमाना वापस आ रहा है। फिल्म बनाने वालों ने पैसा कूट लिया और शाहरुख खान को फिल्म फेयर में सबसे अच्छी एक्टिंग का अवॉर्ड मिल गया। मिलना भी चाहिए था। जिस खेल की देश में इतनी दुर्दशा हो, उसमें इतने उत्साह का अभिनय कोई करामाती अभिनेता ही कर सकता है। यहां यह मत भूलिए कि हॉकी के स्वयभूं ब्रांड एम्बेसडर कहे जाने वाले शाहरुख खान को जब मौका मिला, तो उन्होंने पैसा लगाने के लिए क्रिकेट को चुना। आखिर धंधा अलग है और जोश और जुनून अलग। अभी संसद चल रही है और सरकार चाहे तो हॉकी की बजाय क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल बनाने का विधेयक ला सकती है। आखिर 2010 में भारत में ही हॉकी का विश्व कप होना है और 2008 में हम बीजिंग ओलंपिक के मैदान तक नहीं पहुंच सके।
(शब्दार्थ)



मस्त कलंदर का असली ठिकाना
सुप्रिया रॉय
भारत के लैंड रिकॉर्ड रजिस्टर में एक गांव का नाम है। 1916 में बनाए गए इस रजिस्टर में लिखा है कि इस गांव की आबादी 400 परिवारों की है, यहां एक बड़ा कब्रिस्तान है और मजार और मदरसे हैं। इस गांव में एक गुरद्वारा भी है और यहां की आबादी में मुस्लिमों की संख्या 65 प्रतिशत से ज्यादा है।

अगली बार जब आप दिल्ली में बहुत अभिजात और महंगे कहे जाने वाले निजामुद्दीन इलाके में मौजूद हों और वहां मैकडोनल्ड से ले कर क्वालिटी आइसक्रीम तक की सजी हुई दुकानें देखें या एक घर में दस-दस एयरकंडीशनर्स वाली कोठियां देखें, तो ग्यासपुरा को याद कर लीजिएगा। सरकारी लैंड रिकॉर्ड में जिस गांव का नाम ग्यासपुरा के तौर पर दर्ज है, वह यही है। अब न गांव रहा और न गांव वाले। सैमसंग के प्रेसिडेंट यहां रहते हैं, बीबीसी रेडियो सेवा का ऑफिस यहां है और जयपुर कोठी के नाम से बने हुए भव्य मकान है, जिनमें अभी हाल तक राजीव गांधी के सहपाठी सुमन दुबे भी रहा करते थे।

लेकिन दुनिया में यह इलाका एक मजार के लिए जाना जाता है और यह मजार अपने आप में और अपनी महिमा में अजमेर-शरीफ से कम नहीं आंकी जाती। होने को इस मजार के पड़ोस में मुगल बादशाह हुमायूं का मकबरा भी है और उसका परिसर बहुत बड़ा और बहुत भव्य है, लेकिन जो हैसियत हजरत निजामुद्दीन औलिया के मजार की है, वह किसी बादशाह के मकबरे की नहीं हो सकती। आखिर मौत ही वह पैमाना है, जो किसी की कालातीत महिमा को स्थापित करती है। एक बहुत पुराने गोल गोबंद के कोने पर नामालूम सी दुकानों के बीच से एक रास्ता जाता है और उसकी मंजिल यही मजार होती है।

इसी मजार में पूरी दुनिया में सूफी शायरी के जन्मदाता कहे जाने वाले अमीर खुसरो भी आ कर रहे थे और यहीं औलिया के कदमों में उन्होंने आखिरी सांस ली थी। मजहब और मोक्ष के इस वातावरण में अदब के इस मसीहा की मजार भी मौजूद है और अक्सर यहां औलिया की शान में सूफी कव्वालियों की जो सात्विक महफिलें जमती हैं, उनमें खुसरो के कलाम गाए जाते हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया कोई 683 साल पहले सत्तर साल तक सूफी की अलख जगाने के बाद यही अपनी देह छोड़ गए थे और अब उनकी महिमा यहां इतनी है कि उनके नाम पर एक छोटा-मोटा शहर बसा हुआ है।

सूफी पंथ की चिश्ती धारा के एक मस्त मलंग बाबा हुआ करते थे-हजरत बाबा फरीद। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव से रोजी-रोटी की तलाश में निजामुद्दीन का परिवार दिल्ली आया था और बाबा फरीद की सराय में ही रुका था। परिवार तो इधर-उधर हो गया, लेकिन निजामुद्दीन बाबा फरीद के न सिर्फ शार्गिद बने, बल्कि बाबा फरीद ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने लायक भी पाया। बाद में सूफी पंथ की चिश्ती परंपरा को औलिया बन चुके निजामुद्दीन ने संगीत और साधुत्व के अभूतपूर्व मेल से उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, बंगाल और कर्नाटक तक फैलाया। उनके चेलों की मजारें आज भी वहां पूजी जाती हैं।

जैसे अजमेर शरीफ है, वैसे ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह सारी भौगोलिक और राजनैतिक सीमाएं लांघ जाती है और यहां के दरवेशों में यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि कौन हिंदुस्तानी है और कौन पाकिस्तानी और कौन बांग्लादेशी। किंवदंतियां बहुत हैं, लेकिन अवतारों के ठिकानों की तरह यहां मुर्दों को जिंदा करने की या आसमान से राख या लॉकेट पैदा करने की मिसालें नहीं कहीं जातीं। हजरत निजामुद्दीन औलिया के जो वचन यहां के लोग और खादिम याद करते हैं, उनके अनुसार हम यहां लोगों को चैन देने, सुकून देने और उनके मन को मैल से दूर रखने के लिए बुलाते हैं और यहां से जो जाता है, वह अपनी जिंदगी में चाहे जो पेशा करते रहे, दिल से दरवेश ही रहता है। इस्लाम का सूफी पंथ असल में प्रेम सिखाता है। यह अल्लाह को कोई दूर की या समझ में न आने वाली ताकत करार नहीं देता, बल्कि प्रेम करना उसकी भक्ति का एक मुख्य तरीका है। यही तरीका हिंदू धर्म में मीरा बाई ने सिखाया था और इसी की सीख दे कर आज श्री श्री रविशंकर भगवान होने के लगभग करीब पहुंच गए हैं।

हजरत निजामुद्दीन औलिया ने कहा था कि दरवेश के लिए तीन चीजें जरूरी हैं और तीनों अरबी के आइन अक्षर से शुरू होते हैं। ये हैं-इश्क, अक्ल और इल्म। प्रेम की इसी धारा को बहाने के लिए हजरत निजामुद्दीन औलिया का दूसरा नाम महबूब-ए-इलाही भी है यानी अल्लाह का प्यारा। बहुत साल बाद बीसवीं सदी में जो कह कर जिद्दू कृष्णमूर्ति बौध्दिक आध्यात्म के संसार में अमर हो गए, वह तो हजरत निजामुद्दीन औलिया सात सौ साल पहले कह चुके थे। उन्होंने कहा था कि मैं खुदा नहीं हूं, आपका हमसाया और हमराह हूं, अपना रास्ता मैंने खुद बनाया है और तुमको खुद बनाना है। राजा हो या रंक, जो पहले से बनाए रास्तों पर चलता है, उसका भला नहीं होता।

हजरत निजामुद्दीन औलिया का परिवार असल में अफगानिस्तान के बुखारा से था। उनके नाना को ख्वाजा अरब कहा जाता था और वे कुछ दिन लाहौर रह कर उत्तर प्रदेश के बदायूं में आ कर बस गए थे और खेती-किसानी करने लगे थे। इस्लामी कैलेंडर के सफर महीने की 27 तारीख को निजामुद्दीन का जन्म हुआ था और उस दिन दरगाह पर भीड़ उमड़ती है, हजरत निजामुद्दीन औलिया की मजार को बार-बार नहलाया जाता है और उस पवित्र पानी को भक्तों में प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के बारे में कहा जाता है कि पांच साल की उम्र में उनके पिता नहीं रहे थे और उनकी मां जब उन्हें मदरसे में ले गई थी, तो सात दिन में उन्होंने पूरी कुरान-शरीफ याद कर ली थी। इसके बाद अरबी व्याकरण सीखा और कुरान की आयतों को तर्कों के सांचे में ढालने लगे। ऐसे लोगों को इस्लाम में तफासीव कहते हैं और कहा जाता है कि औलिया गणित और अंतरिक्ष शास्त्र में भी दखल रखते थे।

बाबा फरीद जानते थे कि संगीत सबको बांधता है और इसीलिए उन्होंने अब पाकिस्तान का हिस्सा बन गए मुल्तान से अबू वक्र नाम के एक मशहूर कव्वाल को बुलाया। यह कव्वाल बाबा फरीद की शान में कुछ गाना चाहता था और कहा जाता है कि उसके लिए बाबा फरीद की कव्वालियां खुद हजरत निजामुद्दीन औलिया ने लिखीं। हर नमाज के बाद वे बाबा फरीद का नाम लेते थे और उस सनातन भारतीय धारणा को बल देते थे कि गुरु सबसे बड़ा होता है और उसके बगैर अल्लाह के दर्शन भी नहीं होते। बाबा फरीद के मुरीद बनने के बाद शार्गिद बनने तक हजरत निजामुद्दीन औलिया ने बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे और आखिर बाबा फरीद ने अपने शिष्य को वली-ए-हिंदुस्तान यानी देश का संत घोषित कर दिया।

आज का निजामुद्दीन बहुत सारी परंपराओं, रिवाजों और रवायतों को एक साथ ले कर चलता है। सराय में बहुत जगह नहीं बची, मगर जो दे सकते हैं, वे बहुत सारे कबंल दे गए हैं और जिस दरवेश की मर्जी हो, जो चाहे कंबल उठा ले और रात बिता ले। एक बड़े कढ़ाह में बिरयानी बनती है और वही बाबा का प्रसाद होता है। कभी संगीत तो कभी नमाज के सांगीतिक सुरो में डूबने वाली हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह आज के आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी निजामुद्दीन के पड़ोस का एक स्मारक ही सही, लेकिन बिना किसी तामझाम और कलाकारी के बनाए गए, इस मजार में करोड़ों लोगों की उम्मीदें और आस्था बसती हैं। अमीर खुसरो के मस्त कलंदर नाम के मशहूर भजन का जन्म भी यहीं हुआ और जैसा कि पहले बताया, खुसरो यहीं दफन हैं।

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हजरत निजामुद्दीन के कई चेहरे हैं। एक तो यह कि पश्चिम और उत्तर से आने वाली बहुत सारी रेलगाड़ियों का एक व्यस्त रेलवे स्टेशन है, जिसे समकालीन चेहरा देने की कोशिश की जा रही है। दूसरे यह अमीर लोगों को आशियाना है, जहां अमीरी के सारे अवयव मिलते हैं। विदेशी कारें, विलायती कुत्ते, आधुनिकतम तकनीकी सुविधाएं, बड़े पार्क और चमकदार सड़कें। यह वह हजरत निजामुद्दीन है, जिसे आज की पीढ़ी जानती है। आज से कोई सौ साल पहले तक यह एक घना जंगल था और मुगल बादशाहों के इतिहास में बार-बार दर्ज है कि यहां बादशाह और उनके शहजादे शिकार खेलने आया करते थे। ओबरॉय होटल के सामने वाले फ्लाईओवर से उतरें तो जो गोल गुंबद नजर आती है, उसके भीतर अब भी एक पानी से लबालब भरी बावली है और यह उन दुर्लभ और अनोखी बावलियों में से एक है, जिसके भीतर लगातार झरना बहता है। पता नहीं किस तर्क से इसे बंद ही कर दिया गया है।

हजरत निजामुद्दीन का दूसरा चेहरा पश्चिमी निजामुद्दीन में नजर आता है, जहां भीड़ है, जायरीन यानी तीर्थ यात्री हैं, उनके लिए बना हुआ छोटी-छोटी दुकानों का एक पूरा बाजार है, छोटे-बड़े होटल हैं और दिल्ली के पर्यटन नक्शे में शामिल हो चुका होटल करीम भी है, जहां बड़े से बड़ा आदमी पैदल ही जाता है क्योंकि कार ले जाने की जगह वहां है ही नहीं। वैसे भी दरवेश और औलिया के पड़ोस में पैदल चलना ही सबकी नियति होती है। साल में तीन मेले लगते हैं और हर शुक्रवार को नमाज के दिन अच्छी-खासी भीड़ होती है। यहां की नमाज अनोखी होती है। यह नहीं कि आयतें पढ़ कर अल्लाह को याद किया और चलते बने। शरीयत और कुरान की लगातार समकालीन होती परिभाषाओं को यहां याद किया जाता है और अच्छी-खासी, लेकिन बिना उत्तेजना की बहसें इन मजहबी विषयों पर होती हैं। सांप्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता पर जो लोग दिन-रात खपाते रहते हैं, वे अगर हजरत निजामुद्दीन के कदमों में कुछ वक्त बिता लें, तो उनकी समस्याओं का अपने आप निदान हो जाएगा।
(शब्दार्थ)

पाकिस्तान से फौज के अलावा दूसरे रिश्ते
कुलदीप नैय्यर
तब इन्द्रकुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री थे और नवाज शरीफ पाकिस्तान के, माले में दक्षेस शिखर सम्मेलन का अवसर था। गुजराल और नवाज शरीफ में भेंट हुई। इस भेंट में विचारणीय विषय था कि दोनों देशों के बीच संबंध कैसे सुधरें। दोनों ने यह निश्चय किया कि पहले व्यापार एवं व्यवसाय का सिलसिला सामान्य किया जाए। किन्तु उन्होंने कश्मीर पर विचार करने के लिए दोनों पक्षों के नौकरशाहों को लेकर एक समिति की भी नियुक्ति की। यह काम हो जाने पर गुजराल ने नवाज शरीफ से आग्रह किया कि कपास का आयात करने की व्यवस्था कराएं- जिसका उस समय भारत में अभाव था। नवाज शरीफ ऐसा करने पर सहमत हो गए। किन्तु पाकिस्तान के एक सचिव स्तरीय अधिकारी ने जो कमरे के एक कोने में बैठा था, वह ऊंची आवाज में बोला 'मियां जी, कश्मीर के बारे में क्या सोचा?' और वह करार नहीं हो पाया।
भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधाें के सुधार में यह मुद्दा ही अवरोधक बना रहा है। पाकिस्तान में नौकरशाही की सोच यही है कि इस पर अड़े रहने से ही पाकिस्तान का हित सधेगा। भारत में भी ऐसी ही समस्या है। किन्तु भारत में लोकतंत्र है, यहां राजनीतिज्ञ ही वर्चस्वी हैं। अतएव स्थिति कभी भी इस बिन्दु तक नहीं पहुंच सकी कि जब शासक किसी नीति विशेष के क्रियान्वयन का मन बनाने के बाद नौकरशाहों के कारण वैसा नहीं कर पाए हों।
हाल-फिलहाल हालात ने करवट ली है और विभिन्न कारणों से भारत और पाकिस्तान के बीच स्थिति सामान्य होने की आशा की किरण दिखी है। इन कारणों में से एक यह है कि दोनों देशों के लोग शत्रु भावना और उसकी परिणतियों से आजिज आ चुके हैं। पाकिस्तान में हुए चुनाव में धांधली भी हुई है तो भी उनसे एक राजनीतिक विकल्प उभरा है। अब अवसर उपलब्ध हुआ है कि दोनों देश नए सिरे से संबंधों में सुधार का प्रयास आरम्भ करें। मैं कामना करता हूं कि भारत इस्लामाबाद में सरकार का गठन होने के बाद इस सिलसिले में पहल करेगा।
पाकिस्तान पीपूल्स पार्टी के सह-अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी जिनके पाकिस्तान में आगामी सरकार का नेतृत्व करने के प्रबल आसार हैं, उन्होंने कश्मीर को 'एक ओर कर' व्यापार पर जोर देने का सुझाव दिया है। उन्होंने जहां कश्मीर पर 'प्रबल भावनाओं' को रेखांकित किया है वहीं यह भी कहा है कि 'हम इस स्थिति का बंधक नहीं होना चाहते।' जरदारी चाहे जो कुछ भी हों वह हकीकत पसंद जरूर हैं। वह यह समझते हैं कि कश्मीर मुद्दे पर अत्याधिक अड़चनें उनके देश पर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से भारी पड़ी हैं। उसकी विद्रूपित परिणतियाें में से एक है सशस्त्र बलों का उलझाना।
आतंकवाद जो अनेक प्रकार से पाकिस्तान के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। जरदारी जानते हैं कि इसकी शुरूआत जनरल जिया उल हक ने की थी और इसे भारत को परेशान करने के लिए जनरल परवेज मुशर्रफ ने सहारा दिया। सत्य है कि इससे भारत दंशित हुआ और अभी भी हो रहा है। नई दिल्ली में कोई नहीं जानता कि आतंकवादी कब और कहां पुन: हमला करेंगे। अब दारूल-उलूम देवबंद में भारत के उलेमाओं के एक सम्मेलन में कहा गया है कि आतंकवाद इस्लाम के सिध्दांतों के खिलाफ है और कि मजहब निर्दोषों की हत्या की कदापि अनुमति नहीं देता।
देवबंद इस्लाम के कट्टरतावादी वर्ग का प्रबल स्रोत है और इसका सऊदी अरब में वहावियों से भी घनिष्ट संबंध है। देवबंद से जो फतवा जारी हुआ है, हो सकता है जरदारी उससे प्रेरित और प्रभावित हुए हैं। साथ ही यह भी हो सकता है कि वह पश्चिमोत्तर में विद्यमान स्थिति से निपटने में स्वयं को असहाय अनुभव कर रहे हों जहां आतंकवादी हमले कर रहे हैं। (गत वर्ष के दौरान पाकिस्तान में आतंकवादियों ने 56 हमले किए थे, जिनमें 759 नागरिक मारे गये जिनमें 239 से अधिक सुरक्षाकर्मी शामिल थे और 1,685 व्यक्ति घायल हुए)। जरदारी की प्रथम प्राथमिकता है आतंकवाद का उन्मूलन। यदि बेनजीर भुट्टो जीवित होतीं तो वह भी ऐसा ही करतीं। आतंकवाद से लड़ने के लिए सशस्त्र बलों पर भरोसा करने के अलावा जरदारी के समक्ष और कोई चारा नहीं। वह यह भी अनुभूत करते हैं कि जब तक कश्मीर धधक रहा है तब तक वह सेना को चुनौती नहीं दे सकते।
कश्मीर को 'एक ओर करने' से यह तात्पर्य नहीं कि जरदारी कश्मीर को बट्टे खाते में डाल रहे हैं। न ही इसका यह अर्थ है कि सवाल को एक किनारे कर रहे हैं, जैसी कि हुर्रियत नेताओं को आशंका है। तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि दोनों देश व्यापार और वाणिज्य को खोलें ताकि इस प्रक्रिया से सद्भावना का सृजन होने से दोनों ही देशों को कश्मीर पर अड़चन पर पार पाने में मदद मिले और वे समाधान पर पहुंच सकें। जरदारी कहते हैं कि 'हम तब तक इंतजार कर सकते हैं जब तक कि हर कोई और अधिक बड़ा नहीं हो जाता।' जुल्फिकार अली भुट्टो ने एक बार साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि हर समस्या के समाधान का भार उनकी पीढ़ी पर ही नहीं है। कश्मीर से अगली पीढ़ी निपटे। जरदारी ने भी दलील दी है कि 'हो सकता है अगली पीढ़ी और अधिक परिपक्व हो और तब हम मानव के नाते पारस्परिक संपर्क से परस्पर स्नेह की स्थिति पा लें।' यह एक व्यावहारिक रवैया है। जैसा कि पश्चिम कर रहा है भारत के खुले बाजारों तक पहुंच बनाने के अवसर का लाभ पाकिस्तान को उठाना चाहिए। अब भी अनधिकृत रूप से दुबई और सिंगापुर के रास्ते दोनों देशों के बीच 2 बिलियन डॉलर मूल्य का व्यापार होना अनुमानित है। फिर प्रत्यक्ष व्यापार क्यों नहीं हो जिससे दोनों ओर की सरकार को कस्टम डयूटी, उत्पाद टैक्स आदि से आय होगी और आयातकर्ताओं का भी वह धन बचेगा जो उन्हें टेढ़े मेढ़े रास्तों से वस्तुओं को लाने पर खर्च करना पड़ता है।
मुझे विदित है कि जरदारी के इस सुझाव पर कट्टर दृष्टिकोण रखने वाले कुपित होंगे। दोनों देशों के बीच कश्मीर पर तीन युध्द हो चुके हैं और नियंत्रण रेखा की सुरक्षा पर भी करोड़ों रुपए का अपव्यय हुआ है। (भारत ने अपना रक्षा बजट दस प्रतिशत बढ़ाकर 96,000 करोड़ से 105,500 करोड़ रुपए कर दिया है)। कश्मीर की भारतीय साइड में विक्षोभ के दौरान हजारों लोग मर चुके हैं, जो अनेक दशकों से वहां अक्सर थम-थम कर धधकता रहा।
कश्मीर एक राजनीतिक समस्या है, और उसी ढंग से उसे सुलझाने की आवश्यकता है। सशस्त्र बलों से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। भारत की ओर के कई कमांडरों ने भी ऐसा ही कहा है। पाकिस्तान की ओर के कमांडरो ने भी सैन्य पथ के अनुगमन की निस्सारता को अनुभूत किया है। जरदारी का बयान भी उसी को रेखांकित करता है और वह भी महसूस करते हैं कि गतिरोध को भंग करने के लिए एक नयी पहल की आवश्यकता है।
दरअसल पाकिस्तान को भारत से एक सीख लेनी चाहिए। भारत की चीन के साथ सीमा समस्या है। इस मुद्दे पर 1962 में उनमें युध्द भी हुआ था। नयी दिल्ली की राय में भारत के 35,000 वर्ग मील क्षेत्र पर चीन ने कब्जा किया हुआ है। इसके बावजूद भारत ने ही चीन के साथ आर्थिक संबंधों में पहल की। भारत ने अपना दावा छोड़ा नहीं है। वह हर तीन माह में पेईचिंग के साथ सीमा के परिसीमन पर एक बैठक करता है। एक लिहाज से भारत ने सीमा विवाद को एक ओर रखा है। किन्तु उससे यह तात्पर्य नहीं है कि समस्या का समाधान हो गया है। नयी दिल्ली सीमा पर शांति का उपयोग व्यापार के लिए कर रही है। जो विगत कुछ वर्षों में तिगुना हो गया है। चीन भी तदनुरूप ही बिना किसी संकोच के अनुकूल रूख अपना रहा है।
पाकिस्तान को भी कश्मीर पर अपना दावा त्यागना नहीं है। न ही उसे कश्मीर सोलिडेरिटी दिवस मनाया छोड़ना होगा, जिसका आयोजन विगत कुछ वर्षों से पाकिस्तान करता आ रहा है। किन्तु भारत के साथ व्यापार एवं व्यापारिक संबंधों के बनाने में तो यह सब बाधक नहीं हो सकता। यदि वाणिज्य व्यवसाय आरम्भ हो जाता है तो भारत के कई औद्योगिक घराने पाकिस्तान में निवेश को प्रेरित हो सकेंगे। जैसा कि वे यूके और यूरोप, अमेरिका तथा चीन में कर रहे हैं। नई दिल्ली को भी शुल्क आदि में कुछ रियायतें देनी होगी क्योंकि उसके अन्य पड़ोसियों की तुलना में वह विकसित देश है।
एक बार भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापार संबंध स्थापित हो जाता है तो इस व्यवस्था को बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल तक विस्तृत किया जा सकता है। अन्ततोगत्वा अफगानिस्तान से म्यांमार तक एक साझा बाजार बन सकता है, यूरोपीय देशों के समान ही। सीमा अनंत है। सिलसिला असीम है। (शब्दार्थ)
जिंदगी से गायब हो रहा है साहित्य
बटरोही
ऐसे समय में, जब साहित्य डरा-सहमा-सा समाज के किसी अनजान कोने में दुबक गया हो, साहित्यकारों को याद करना भय पैदा करने लगा है। एक कर्मकांड की तरह कुछ खास अवसरों पर हम भले ही उन्हेें जबरन याद कर लें, बार-बार यह बात परेशान करती है कि तेजी से बदलते चले जा रहे आदमी के सरोकार के साथ कैसे उसकी संगति बिठाई जाए। समाज में अब तक जो काम साहित्य करता था, उसे ज्यादा आसान और आकर्षक तरीके से दूसरी चीजें करने लगी हैं। लेकिन तब भी, यह सच है कि आदमी के अपने निजी और एकांत क्षणों में साहित्य उसका जो साथ देता है, वह दूसरी चीजों से संभव नहीं है। यह भी ठीक है कि आधुनिक सभ्यता ने हमसे हमारा एकांत छीन लिया है... तब भी, नई जटिलताओं से निजात पाने के लिए हम अपने पुरखे साहित्यकारों की ओर ही आशा भरी निगाहों से देखते हैं, शायद वहां हमें जीने के कुछ सार्थक सूत्र मिल सकें।

साहित्य के बारे में तल्खी भरे ये सवाल आज इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि अभी-अभी एक बड़ी घटना घटी है। बीते एक साल (2007-08) में बीसवीं सदी को स्वर प्रदान करने वाले हिंदी के चार साहित्यकारों, रामधारी सिंह 'दिनकर' (1908- 1974), हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1978), महादेवी वर्मा (1907-1987) और हरिवंश राय 'बच्चन' (1907-2003) की जन्म-शताब्दियां बिना किसी हलचल के गुजर गईं। इन चारों साहित्यकारों ने आधुनिक भारत के सांस्कृतिक ढांचे को बनाने में अपने-अपने ढंग से कोशिश की और उसे शक्ल प्रदान की। इनमें से किसी के भी सपने को शामिल किए बगैर हम आज के भारत की कल्पना नहीं कर सकते। दिनकर स्वाधीन और मुक्त भारतीय मनीषा के प्रतीक काव्य-आंदोलन 'छायावाद' के गर्भ से निकले प्रगतिवाद के पहले बड़े कवि, संस्कृतिकर्मी और राजनेता थे

मैथिलीशरण गुप्त के बाद वह एकमात्र ऐसे कवि थे, जिन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से नवाजा गया। 1956 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भूमिका के साथ जब उनकी प्रसिध्द पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय प्रकाशित हुई, तो हिंदी पाठकों को अपनी संस्कृति का एक नया और व्यापक फलक प्राप्त हुआ। इस किताब में दिनकर ने अपने समय के सपनों के आधार पर भारत के अतीत की नई और प्रामाणिक व्याख्या पेश की। दिनकर 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सदस्य रहे और 1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिंदी सलाहकार। इस रूप में आधुनिक हिंदीभाषी समाज के विन्यास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी क्षेत्र की खांटी देसी परंपरा के लेखक हैं। चिंतू पांडे के बलिया की मदमस्त धरती में पैदा हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी की औपचारिक शिक्षा लगभग नहीं के बराबर हुई, लेकिन स्वाध्याय से उन्होंने प्राचीन क्लासिक भाषाओं में अद््भुत महारत हासिल की ही, आधुनिक भारत की भाषाओं, हिंदी, अंगरेजी आदि पर असाधारण अधिकार प्राप्त किया। चाहे उनकी बहुचर्चित पुस्तक कबीर हो, सूर साहित्य, प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद, नाथ संप्रदाय आदि उनके शोधग्रंथ हों, चारु चंद्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा आदि उपन्यास हों या फिर अशोक के फूल और कुटज जैसे ललित निबंध। इन सभी रचनाओं में भारत का ऐसा सांस्कृतिक वैभव है, जो सैकड़ों वर्षों की सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हाशिये पर चला गया था, लेकिन जो दुबारा उद््घाटित होने के बाद भारतीय परंपरा को आधुनिकता के साथ सही अर्थों में जोड़ता है। ऐसा नहीं है कि आचार्य द्विवेदी अपनी इन किताबों के जरिये किसी प्रकार का सांस्कृतिक पुनर्जागरण लाना चाहते थे, न वह अतीत के भारत का गौरवशाली गुणगान करना चाहते थे, दरअसल वह अपनी रचनाओं के जरिये आज के भारत को एक अविच्छिन्न इकाई के रूप में पेश करते हुए अंगरेजों की इस स्थापना का प्रतिवाद करते दिखाई देते हैं कि मुसलमानों के आगमन के बाद भारतीय संस्कृति दो-फाड़ हो गई थी। द्विवेदी जी कहते हैं कि 'अगर इसलाम इस देश में न भी आया होता, तो भारतीय संस्कृति के वर्तमान रूप में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था।'

महादेवी वर्मा हिंदी ही नहीं, आधुनिक भारतीय साहित्य में स्त्री-स्वर और चेतना को रेखांकित करने वाली पहली लेखिका हैं। उनका लेखन ही नहीं, समूचा जीवन स्त्री के उस विद्रोह की कहानी है, जिसमें वह खुद अपने लिए स्पेस बनाती है। स्त्री-अस्मिता के लिए किया गया उनका यह विद्रोह कदम-कदम पर दिखाई देता है। लगभग दो सौ वर्षों से जिस समाज में लड़की के पैदा होते ही मार दिया जाता हो, उसमें अपने लिए सम्मानजनक, आत्मीय जगह बनाना, काशी के पंडितों द्वारा यह ऐतराज किए जाने पर कि स्त्रियां और गैर-ब्राह्मण वेदों का पवित्र उच्चारण नहीं कर सकते, प्रयाग विश्वविद्यालय से उच्चतम श्रेणी में संस्कृत में एमए करना, वर्णवादी हिंदू धर्म त्यागकर बौध्द धर्म अपनाने की इच्छा रखना... जैसे कई ऐसे कदम थे, जो एक साथ बहुत कम रचनाकारों में दिखाई देते हैं। अपने जीवन काल में ही अकेले बूते पर एक दर्जन से अधिक संस्थाओं का निर्माण, प्रयाग से बद्रीनाथ तक की दो बार पैदल यात्रा, सरकार की भाषा नीति के विरोध में पद्म भूषण उपाधि का सार्वजनिक परित्याग, जीवन भर कॉपीराइट कानून में संशोधन के लिए संघर्ष आदि के जरिये उन्होंने भारतीय समाज में नई परंपराओं का सूत्रपात किया।

हरिवंश राय बच्चन की कविता आजादी की दहलीज पर खड़े मध्यवर्गीय भारतीय समाज की उन उमंगों, मस्ती, समर्पण और बलिदान की कलात्मक अभिव्यक्ति है, जिसे उस दौर के युवक एक जुनून की तरह महसूस कर रहे थे। मधुशाला का एक-एक गीत उन दिनों हर युवा को अपने सपनों का प्रतिबिंब लगता था... एक रोमानी अंदाज, जिसमें बिना कुछ पाए, सब कुछ लुटा देने का भाव था... ठीक उस दौर के स्वतंत्रता-सेनानियों की तरह। बच्चन का साहित्य उस दौर के युवाओं का स्वर इसलिए भी बना, क्योंकि छायावाद की अति- सुकुमारता, साहित्यिकता और वैयक्तिक सूक्ष्मता से लोग ऊबने लगे थे और उर्दू गजलों की चमक तथा लचक में उन्हें अपनी भावनाएं अधिक स्वाभाविक रूप में प्रतिबिंबित दिखती थीं। बच्चन ने अपनी कविता में उर्दू कविता का यह चरित्र उभारा।

आज से ठीक सौ साल पहले जन्मे हिंदी साहित्य के ये चारों महारथी शतायु होने के बाद अपने समग्र को हमें सौंपकर एक बार फिर हमारे बीच आ बैठे हैं। क्या हमने उन्हें उनकी जगह सौंप दी है? पता नहीं, वहां से वे हमारे समाज को देख पा रहे हैं या नहीं, मगर हम, आज सौ साल बाद एक बार फिर उनके समाज को अपने चारों ओर उसी तीव्रता से महसूस कर रहे हैं। ऐसे में, उनसे हमें लगातार नए पाठ मिल रहे हैं और हमारा लगातार विस्तार हो रहा है। मगर हम उनकी स्पेस उन लोगों को सौंपते चले जा रहे हैं, जो उनकी जगह पर जबरन कब्जा करके उसे प्रदूषित करने में लगे हैं।
(शब्दार्थ)

रो रही होगी ध्यानचंद की आत्मा
संजय शर्मा
अगर हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद 100 साल जी गए होते, तो हॉकी को रसातल में जाते देखकर न जाने उन पर क्या बीतती। हालांकि वर्ष 1979 में जब उनका निधन हुआ, तब वह मांट्रियल ओलंपिक में भारत का बुरा प्रदर्शन देख चुके थे। लेकिन 80 साल में यह पहली बार है, जब भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक के लिए क्वालिफाई नहीं कर पाई। चिली में फाइनल में ब्रिटेन ने उसे 2-0 से पीट दिया। यानी वर्ष 1928 के बाद पहली बार होगा, जब आठ बार स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम ओलंपिक में नहीं होगी। जाहिर है, इस हार पर पूरे भारत में हायतौबा मची हुई है।

भारत की खोज में निकले राहुल गांधी ने चयन में पक्षपात को जिम्मेदार बताया है, तो कुंभकर्णी नींद में पड़े खेल मंत्रालय के मौजूदा मंत्री मणिशंकर अय्यर ने लंबी रणनीति बनाने की बात कही है। कुछ सांसदों ने अफसोस जताया है, तो कुछ पूर्व ओलंपियनों ने ठीकरा अध्यक्ष केपीएस गिल पर फोड़ा है। एक समय अध्यक्ष के चुनाव में गिल के खिलाफ खम ठाेंकने वाले उपाध्यक्ष नरेंद्र बतरा की अंतरात्मा अलसुबह जाग गई और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पूर्व ओलंपियन जलालुद््दीन साहब ने बताया कि हॉकी वालों में एक जुमला खूब चलता है कि गिल साहब जो जिम्मेदारी लेते हैं, उसे खत्म करके ही दम लेते हैं। पहले पंजाब से आतंक को खत्म किया, अब हॉकी को खत्म करेंगे। गिल साहब का कहना है कि इस्तीफा नहीं देंगे।

हॉकी को वक्त चाहिए। यह कोई इन्स्टेंट कॉफी मशीन नहीं है। हालांकि वह काफी वक्त ले चुके हैं।
दरअसल सचाई यह है कि कभी हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के जमाने में इसके बहुत माई-बाप थे, आज भी हैं। लेकिन इन सबने इसकी ठीक से परवरिश नहीं की। वर्ष 1975 का वर्ल्ड कप जब हम जीते थे, तब वह टीम भारतीय ओलंपिक संघ ने भेजी थी, क्योंकि तब हॉकी फेडरेशन में झगड़ा चल रहा था।

विडंबना देखिए कि जब हमारे यहां छीना-झपटी का खेल चल रहा था, तब दूसरे देश इस खेल में भारत-पाकिस्तान के दबदबे को खत्म करने के लिए इसे एस्ट्रो टर्फ पर लाकर कलात्मक की जगह 'पावर गेम' बनाने में जुटे थे। ऑस्ट्रेलिया ने जिस भारतीय शख्स को वर्ष 1971 के आसपास अपनी टीम का कोच बनाया था, उसे हमारे फेडरेशन वालों ने कभी घास नहीं डाली। जहां यूरोपीय हॉकी को एस्ट्रो टर्फ पर लाने वाले थे, वहीं कंगारुओं ने इस भारतीय शख्स की मदद से एशियाई और यूरोपीय हॉकी को मिलाकर अपनी हॉकी को 'खच्चर' बना डाला। उसके बाद हॉकी में आस्ट्रेलिया की ताकत दुनिया ने देखी।

आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे। और मॉस्को में पॉलीग्रास (यह भी कृत्रिम घास थी) पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था। लेकिन हमारी हॉकी ने वर्ष 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में मानो कफन ओढ़ लिया। भले ही लोग कहें कि इस पर आखिरी कील अब ठुकी है, लेकिन इसका एक ठोस पहलू यह भी है कि वर्ष 1983 में कपिल देव की टीम के इंगलैंड में विश्व कप क्रिकेट जीतने के साथ ही इसका पतन शुरू हो गया था।

हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है। इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है। फिर हॉकी के राष्ट्रीय खेल होने और वेस्ट इंडीज क्रिकेट के पराभव का भी विश्लेषण करें, तो बात आसानी से समझ में आ जाएगी। हर कोई जानता है कि एकाधिकार या प्रभुत्व ऐसे बरगद हैं, जिनके नीचे कोई दूसरा वृक्ष पनप नहीं सकता। क्रिकेट रूपी बरगद ब्रांड के नीचे हॉकी समेत अन्य सभी खेल दबते चले गए। हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था।

यह जानकर हैरत होगी कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई केपास इतने पैसे नहीं थे। वैसे यह क्रिकेट के लिए शुभ ही रहा। एक अन्य बिंदु है वेस्ट इंडीज क्रिकेट का पराभव, जिससे हम भारतीय हॉकी की दुर्गति को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।

वेस्ट इंडीज की क्रिकेट अचानक निचली पायदान पर नहीं गई। इसकी प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब यह टीम शिखर पर थी। तब उन 15-20 सालों में वहां के बच्चे-किशोर क्रिकेट के बजाय बास्केटबॉल को अपना रहे थे। जानते हैं क्यों? उन्हें बगल में बसे अमेरिका में अपना भविष्य सुरक्षित नजर आया। वहां बास्केटबॉल में इफरात पैसा था और इस मामले में कंगाल वेस्ट इंडीज बोर्ड अपनी कामयाबी के मद में इतना चूर था कि वह जान ही नहीं पाया कि उसके पैरों तले जमीन खिसक चुकी है। नतीजा यह हुआ कि जिन प्रतिभाशाली लड़कों में लॉयड, होल्डिंग, गार्नर, रिचड््र्स बनने के गुण थे, वे बास्केटबॉल में नामी हो गए।

हमें यह समझना होगा कि किसी भी देश में बेहतरीन मेधा सीमित ही होती है और यह उसके तंत्र पर निर्भर करता है कि वह विभिन्न क्षेत्रों या खेलों में अग्रणी बनने के लिए उसका उपयोग समान रूप से कैसे करता है। कहना न होगा कि इस मोरचे पर हमारा प्रबंधन तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। विभिन्न खेल संघों पर राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के कब्जे ने हालात को बदतर बनाया है। ऐसे में, स्वाभाविक रूप से हॉकी समेत तमाम खेलों में पेशेवर नजरिये की कमी देखी गई।

वर्ष 1983 में क्रिकेट में जीत और 1976 में मांट्रियल ओलंपिक की हार के नतीजों के संभावित परिणामों का हमारी सरकार और भारतीय ओलंपिक संघ सही आकलन नहीं कर पाए। उनमें शायद इतनी दूरदर्शिता थी भी नहीं। क्रिकेट में जीत से लोगों को ऐसा नशा मिला, जिसे बढ़ना ही था। इसमें ग्लैमर आया, पैसा घुसा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की क्रांति के बाद यह छोटे शहरों और कसबों में पसर गया। नतीजा यह हुआ कि जो यूपी, बिहार (झारखंड), पंजाब, हरियाणा हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती, बॉलीवॉल और बास्केटबॉल की नर्सरी होते थे, आज वहां के कसबों-गांवों की दिमागी और शारीरिक तौर से मजबूत बाल-किशोर प्रतिभाएं क्रिकेट की सप्लाई लाइन बन गई हैं। अगर सरकार और खेल संगठनों ने सभी क्षेत्रों में इस सप्लाई लाइन के समान वितरण के गणित को नहीं समझा, तो यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश से दूसरे खेलों का वजूद मिटते देर नहीं लगेगी।
(शब्दार्थ)

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